Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 14
________________ २६- जैनहितैषी। . [ भाग १५ छूने में पाप समझनेकी भावना ही पाप- सम्प्रदायमें तो अनेक भंगी और चाण्डाल मय है। श्रादि तर गये हैं । जो धर्म सारे जगतको ___ "रजस्वलाका उदाहरण देकर विष्णु के समान जानता है, वह अन्त्यजों. अन्त्यजोकी अस्पृश्यताका बचाव किया को विष्णुसे रहित कैसे मान सकता है ? जाता है। परन्तु यह अज्ञान है। यदि हम "जबतक तुम उन्हें अस्पृश्य मानते अपनी रजस्वला बहिनसे छू जाते हैं तो हो, छूनेमें पाप समझते हो तब तक इसमें कोई पाप नहीं मानते; किन्तु शारी- तुम्हें नहाना हो तो नहाम्रो। परन्तु यह रिक शौचके नियमोंका भंग हुआ समझ प्रार्थना है कि जैसे तुम अपनी रजस्वला कर नहा लेते हैं और स्वच्छ हो जाते हैं। माता का तिरस्कार नहीं करते, उसकी इस बातको मैं समझ सकता हूँ कि जिस सेवा करते हो, उसी प्रकार अन्त्यजोका भी अन्त्यज भाईने मैला कार्य किया हो, उस- तिरस्कार न करके उनकी सेवा करो। को हमें तबतक न छूना चाहिए जबतक उनके लिए कूएँ खुदवाओ, पाठशालायें वह नहा न ले अथवा दूसरी तरहसे खोलो, दवा-दारुका प्रबन्ध करो, वैद्य स्वच्छ न हो जाय । परन्तु इस बातको रक्खो और उनके दुःस्त्रके भागीदार बनमेरी आत्मा स्वीकार नहीं कर सकती कि कर उनकी आन्तरिक आशीष लो । उन्हें अन्त्यज कुलमें जन्म लेनेवालोंका सर्वथा अच्छी जगहमें रक्खो, अच्छी तनख्वाह त्याग ही कर देना चाहिए। दो, उनका सत्कार करो, उन्हें उपदेश दो __"अँगरेजी सरकार जिसके साथ कि और अपने भाई समझकर उनसे शराब हम असहकार कर रहे हैं, हमारा इतना और गोमांसका त्याग कराओ, तथा जो तिरस्कार नहीं करती। हम तो अपनी त्याग करें, उन्हें उत्साहित करो । ऐसा अन्त्यजोंके प्रति की जानेवाली डायरशाही- करते हुए तुम्हें मालूम हो जायगा कि को धर्म मानकर उसका पोषण करते हैं। छुआछूत एक कुरीति है।" ___ मैं तो समझता हूँ कि हमने जैसा चौथी अन्त्यज परिषद्के सभापतिके बोया. वैसा लन रहे हैं। अन्त्यजों का रूपमा गान्धीजीने जोविस्तत व्याख्यान तिरस्कार करके ही हम जगतके तिर. . (नवजीवन भाग २, अंक ३३) दिया था, स्कार-पात्र बने हैं। उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं:___ “अस्पृश्यता को बुद्धि ग्रहण नहीं कर “अस्पृश्यताके इस पापसे ही हम सकती । यह सत्यका, अहिंसाका विरोधी सब पतित हुए हैं और साम्राज्यमें भंगी धर्म है, इससे धर्म ही नहीं है। हम ऊँचे समझे जाते हैं । हमारे संसर्गसे मुसलऔर दूसरे नीचे, ये विचार ही नीच हैं। मानोको भी पतित होना पड़ा है। हिन्दू जिस ब्राह्मणमें शुद्धका-सेवाका मुसलमान दोनों ही साम्राज्यमें पारिया गुण नहीं है, वह ब्राह्मण नहीं है। ब्राह्मण पारिया (मद्रास प्रान्तको एक अस्पृश्य तो वह है जिसमें क्षत्रियके, वैश्यके और जाति) बने हुए हैं । दक्षिण आफ्रिकामे, शद्रके सब गुण हों और उनके सिवाय पूर्व आफ्रिकामें और कनाडामें केवल हिन्दू शान भी हो। शूद्र कुछ शानसे सर्वथा ही नहीं, मुसलमान भी हैं और वे भी विमुख नहीं है, यद्यपि उसमें सेवाकी, सब भंगो गिने जाते हैं। यह इतना बड़ा प्रधानता है। वर्णाश्रम धर्म में ऊँच नीच पाप इसी अस्पृश्यता के फलसे उत्पन्न की भावनाको जगह ही नहीं है। वैष्णव हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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