Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 17
________________ २७१ अङ्क ४-१.] अस्पृश्यता निवारक आन्दोलन । . ही नहीं समझ सकता कि अन्त्यज संस्कृतिका विनिमय होता है। अन्त्यजों नहाने और साफ कपड़े पहननेसे भी को अस्पृश्य रखनेसे वे इन सभी बातोंसे शुद्ध नहीं हो सकते। क्या अन्त्यजका वंचित रहते हैं। वे हमारे विवाहादि अन्तःकरण ही मैला है ? क्या जन्मले ही उत्सवों में शामिल नहीं हो सकते, कथा. अन्त्यज मनुष्य नहीं हैं ? क्या अन्त्यज । कीर्तनों में नहीं आ सकते, मन्दिरों में पशुभोसे भी गये-बीते.हैं ? प्रवेश नहीं कर सकते और गाँवोंके भीतर "मैंने अनेक अन्त्यजोको सरलचित्त, नहीं रह सकते। ऐसी दशामें हम उनसे प्रामाणिक, शानी और ईश्वरभक्त देखा जो बड़ी भारी सेवा लेते हैं, उसके बदलेऔर उन्हें मैं सब तरहसे चन्दनीय समः। में उन्हें कुछ नहीं मिलता। उनकी सेवा झता हूँ" निष्फल हो जाती है और इसमे सेवा ___"यह बात तो समझमें आती है कि करानेवालोंका अधःपतन होता है। यदि अन्त्यात मला हो, उसने मैला उठा- ____"इस तरह की सेवा लेना एक तरहकर स्नान न किया हो तो उसे नहीं छूना की चोरी है। अन्त्यजोको अस्पृश्य रखचाहिए। परन्तु वह चाहे जितना शुद्ध हो, कर उन्हें अपनी संस्कृतिका-सभ्यताका फिर भी उसे न छूना, यह तो अधर्मकी हिस्सा देने की हिन्दुओने और क्या व्यवहद है। मैंने ऐसे अनेक लोग देने हैं जो स्था की? जो लोग यह कहते हैं कि अन्त्यज न होकर भी अन्त्यजोसे अधिक अन्त्यजोकी अस्पृश्यता उनके पापोंकी गन्दे रहते हैं। सैंकड़ों ईसाई मैला साफ वंशपरम्परागत सजा है, वे हिन्दू धर्मको करते हैं और डाकृरोका तो धर्म ही मैल लजाते हैं। क्या पतितपावन हिन्दू धर्म धोनेका है। परन्तु उन सबके छूनेमें हम एक मनुष्यके पापके लिए उसकी ४पाप नहीं मानते !" पीढ़ियोतकको नरकमें ढकेल देनेकी . 'अन्त्यजोंकी सेवा' शीर्षक लेख (नव- व्यवस्था देता है ?" जीवन भाग २ अंक १६) में गांधीजी वर्ण-व्यवस्था। लिखते हैं____ "न्यज लोग चारों वर्गों की सेवा महात्मा गांधी वर्ण-व्यवस्थाको कैसा करते हैं और बहुत बडी सेवा करते हैं। समझते हैं, यह जानने के लिए हम उनके पर सबसे उन्हें या मिलता 'वर्णव्यवस्था' शीर्षक लेख (नवजीवन है? जिस तरह हम धनका विनिमय भाग २, अंक १५) के कुछ अंश उद्धत करते हैं, उसी प्रकार संस्कृतिका भी करते हैं:विनिमय (बदला ) होना चाहिए। जो "वर्ण-व्यवस्था में जो चतुर्विध समाजजातियाँ एक दुसरेके साथ हिलती की रचना है, वही तत्वकी, स्वाभाविक मिलती रहती हैं. वे एक दसरेके संस्का- और आवश्यक जान पडती है। असंख्य रोसे लाभ उठाती हैं। शुद्र भी कथा- जातियों और अन्तर्जातियोंसे किसी पुराणोंके श्रवणसे धार्मिक शिक्षा पा समय भले ही कुछ सुभीते हुए हों; परन्तु सकते हैं । एक गाँव में रहनेवाले इस समय तो जातियाँ विघ्न करनेवाली सभी लोगोंकी रक्षा एकसी होती है।• ही हैं। ये अन्तर्जातियाँ जितनी जल्दी संगीतकला आदिके संस्कार मन्दिरों- एक हो जायँ, उतना ही समाजका लाभ में सब कोई प्राप्त करते हैं। इस तरह है। इन जातियों में इस तरहकी नजरमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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