Book Title: Jain Ganitanuyog
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Vijayshree Sadhvi

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Page 13
________________ कवि भूधरदास जी ने लोक भावना में इसी मर्म को उद्घाटित करते हुए कहा है चौदह राजु उत्तुंग नभ, लोकपुरुष संठाण। तामे जीव अनादि ते, भरमत है बिन ज्ञान॥ अर्थात् अनन्तकाल से इसी लोक में परिभ्रमण करने के पश्चात् भी इस आत्मा को न अपने मंच का ज्ञान हो रहा है न उसके नैपथ्य का। सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान के दर्पण में जब यह सत्य स्पष्ट होता है तो वह इस अंतहीन चक्रव्यूह से छूटने के उपायों को जानने के लिए उत्सुक होता है। भोगभूमियाँ, कर्मभूमियाँ, नरकावास, देवलोक तथा असंख्य द्वीप-समुद्रों का स्वरूप और परिचय प्राप्त कर पुण्य और पाप के सुफल-दुष्फल आदि से भी सहज परिचित हो जाता है तब वह असत् कर्म से निवृत्त होता हुआ सत्कर्म की ओर अग्रसर होता है और अंत में वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी जिसे सिद्धशिला कहा गया है उसकी छत्रछाया में पहुँचकर अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है, जहाँ न जन्म है, न मरण, न रोग है, न शोक, न आधि है, न व्याधि, न कोई उपाधि। संक्षेप में, सृष्टि के स्वरूपादि ज्ञान से मनुष्य को अपनी अनन्त यात्रा का अतीत, वर्तमान और भविष्य स्पष्ट हो जाता है। आचार्य विद्यानन्दि ने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में कहा है-"समस्त लोक का तथा पृथ्वी पर स्थित जम्बूद्वीपादि का निरूपण शास्त्रों में न हो तो जीव अपने स्वरूप से ही अपरिचित रह जाएगा। ऐसी स्थिति में आत्म तत्त्व के प्रति श्रद्धान ज्ञान आदि की संभावना भी समाप्त हो जाएगी।" लोकस्वरूप से धर्मध्यान-जैन परम्परा में लोक स्वरूप का अध्ययन ध्यान के लिए भी महत्त्व रखता है। ध्यान, संवर, निर्जरा और मोक्ष का प्रमुख साधन है। जैसा कि 11वीं शताब्दी के महान जैनाचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरि ने अपने योगशास्त्र (11/1) में कहा है-"स्वर्गापवर्गहेतुर्धर्मध्यानमिति कीर्तितं यावत्" अर्थात् धर्मध्यान मोक्ष व स्वर्ग दोनों का साधक है। धर्मध्यान के चार भेदों में संस्थान विचय एक प्रमुख भेद है। लोक के स्वभाव, आकार तथा लोक स्थित विविध द्वीपों, क्षेत्रों, समुद्रों आदि के स्वरूप चिन्तन में मनोयोग केन्द्रित करना संस्थान विचय धर्मध्यान है। लोकस्वरूप पर विचार करने का विशेष फल है-(1) लेश्याविशुद्धि और (2) वैराग्यवृद्धि। 'धर्मध्यान रूप संस्थान विचय में पिण्डस्थ धर्मध्यान की पाँच धारणाएँ कहीं हैं, उनमें पार्थिवी धारणा के अन्तर्गत साधक मध्यलोकवत् क्षीर समुद्र के मध्य जम्बूद्वीप को एक कमल के रूप में चिंतन करता है, इस कमल में मेरू पर्वत को दिव्य कर्णिका के रूप में ध्यान का विषय बनाया जाता है। इस प्रकार मोक्ष का साधनभूत ध्यान लोकस्वरूप व उसकी आकृति के ज्ञान से दृढ़ व पुष्ट बनता है। द्वादश भावनाओं में भी लोकस्वरूप भावना को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वहाँ लोक के वास्तविक स्वरूप का बार-बार चिन्तन करने का निर्देश दिया है। जिसका फल उपयोग की स्थिरता और चित्त विशुद्धि बताया गया है। लोकस्वरूप पर बार-बार चिन्तन करने से आत्मद्रव्य पर अनुरक्ति और पर पदार्थ से विरक्ति दृढ़ होती है, साथ ही प्रमाद का भी परिहार होता है और सबसे बड़ी उपलब्धि अपने यथार्थ अस्तित्व का बोध होना है। दिगम्बर ग्रन्थ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (13/157) में जम्बूद्वीप के ज्ञान, पठन व श्रवण से मोक्ष प्राप्ति होना कहा है। आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा है

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