Book Title: Jain Ganitanuyog
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Vijayshree Sadhvi

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Page 12
________________ -साध्वी डॉ. विजयश्री 'आर्या' जैन सिद्धान्ताचार्य परोवाकू गह विश्व क्या है? कितना बड़ा है? किस आकार व 1प्रकार का है? इसमें क्या-क्या रहा हुआ है? हम इन्द्रियों से जितना जानते हैं, क्या वही अंतिम सत्य है या अन्य पदार्थ भी विश्व में हैं? इस प्रकार के अनेक प्रश्न विश्व को लेकर मानव मस्तिष्क में उभरते रहे हैं। प्राचीन वेदज्ञ ऋषि-महर्षियों ने विशालतमा इस पृथ्वी की सीमा जानने की उत्सुकता निम्न शब्दों में अभिव्यक्त की है-'पृच्छामि त्वां परमन्तं पृथिव्याः ।'-(ऋग्वेद 1/164/34) श्वेताश्वतर उपनिषद् के ऋषि ने भी यही प्रश्न उठाया है-'कि कारणं ब्रह्म कतः स्म जाताः जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठाः।' (श्वेता 1/1) अर्थात हम कहाँ-कहाँ से पैदा हुए हैं और हम सबका अवस्थान किस पर आधारित है? इससे यह स्पष्ट है कि भारतीय चिन्तक इस पृथ्वी और सृष्टि के विषय में सतत जिज्ञासु थे और उन्होंने अपनी तपोमय अध्यात्म साधना द्वारा जिस सत्य का साक्षात्कार किया, वह उन-उनके धर्मग्रथों में निबद्ध है। जैन दर्शन में अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य आगम साहित्य के इन दोनों विभागों में सृष्टि-विज्ञान सम्बन्धी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है। विशेष तौर पर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति तो सृष्टि-विज्ञान की सामग्री से परिपूर्ण आगम है। जिन्हें गणितानुयोग के अन्तर्गत स्थान दिया गया है। जैनधर्म की आध्यात्मिक दृष्टि-जैनदर्शन आदिकाल से एक निवृत्तिप्रधान धर्म रहा है, अत: इसमें सृष्टि विषयक ज्ञान भौतिक विज्ञान की सीमित परीक्षण-पद्धति पर आधारित न होकर आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वज्ञ भगवन्तों द्वारा उपदिष्ट हुआ है। उन्होंने केवलज्ञान की दूरबीन में जो कुछ जाना है देखा है, वही कहा है। उनका ज्ञान आत्मसाक्षात्कार से उद्भुत है। लोक का, सृष्टि का विवेचन जिस प्रकार उन्होंने किया वह काल्पनिक नहीं, वरन् ठोस सत्य है। सर्वज्ञ कथित आगम में संभावना (Theory) नहीं वरन् सत्य (Fact) है, वस्तुस्थिति है, वस्तुविज्ञान है। उन्होंने सृष्टि का वर्णन मात्र मानचित्रों का संग्रहालय या रंग रंखाओं और कोणों-भुजाओं का ज्यामितिक दृश्य दर्शाने के लिये नहीं किया है वरन् स्वगृह की स्थिति का बोध कराने के लिए कहा है अतः वह एक सत्य तथ्य है। सृष्टि के पूर्ण व वास्तविक स्वरूप को जानकर जीव यह विचार करता है कि इस पुरुषाकार चौदह राजू लोक में मैं अज्ञानवश निरुद्देश्य घूम रहा हूँ। अज्ञान व मोह का नशा मुझे वहाँ नहीं पहुँचने दे रहा जो मेरा शाश्वत घर है। मैं जहाँ-जहाँ इस सृष्टि में भटका, जिसको पाने के लिए मैं हर स्थान पर अटका और आकुल-व्याकुल रहा, वह कितना तुच्छ, स्वल्प और अशाश्वत है। कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर अज्ञान की पट्टी बाँधकर मेरी आत्मा ने कभी कहीं और कभी कहीं वास किया। जिस लोक को मैंने अपनी कर्मभूमि बनाया है, वह मात्र एक मंच है, जहाँ कुछ देर के लिये अभिनय करने आया हूँ। (viii)

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