Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 15
________________ शुभाशीष संवेगरंगशाला जैन साहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ प्राकृत भाषा में रचित है। इसके रचनाकार खरतरगच्छ के जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्री जिनचन्द्रसूरि (प्रथम) है। रंगशाला का अर्थ है नाट्यगृह। रंगशाला दो प्रकार की है एक संसार रंगशाला और दूसरी संवेगरंगशाला। संसार रंगशाला में जीवात्माएँ विभिन्न योनियों में जन्ममरण करते हुए अपना अभिनय करती है, जबकि संवेगरंगशाला में जीवात्मा संसार के विरक्त होकर मोक्ष रूपी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आत्म-साधना के विविध उपक्रम करता है। संसार रंगशाला भवभ्रमण का हेतु है जबकि संवेगरंगशाला मुक्ति का मार्ग है। जिन शासन में तीर्थंकर परमात्मा ने भवभ्रमण से मुक्ति का मार्ग बताया है। संवेग शब्द का अर्थ है- वैराग्य या संसार के प्रति अनासक्ति। राग आत्मा को संसार से जोड़ता है, तो वैराग्य संसार को तोड़ता है। संवेगरंगशाला में आचार्य श्री जिनचन्द्रसरिजी ने वैराग्य की साधना के विविध उपक्रम बताये हैं। उन्होंने भवाभिनन्दी होने की अपेक्षा आत्माभिनन्दी होने का मार्ग बताया है, जिससे आत्मा भवभ्रमण से छटकर मोक्षरूपी साध्य की प्राप्ति कर सके। सर्व गुणों में संवेग सर्वश्रेष्ठ गुण हैं क्योंकि यह संसार परिभ्रमण रूप दुःखों से मुक्ति दिलाकर मोक्ष के शाश्वत आनन्द का रसास्वादन करता आचार्य जिनचन्द्रसूरिजी के अन्तिम आराधना प्रधान इस ग्रंथ के स्वाध्याय से आत्मा निश्चित ही मोक्षानुगामी बनता है। मेरी प्रिय गुरुभगिनी साध्वी दिव्यांजना श्रीजी ने इस महत्वपूर्ण महाग्रंथ को अपने शोध का विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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