Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop Author(s): Priyadivyanjanashreeji Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 13
________________ मंगल कामना संवेगरंगशाला आत्मसाधना का प्रेरक ग्रन्थ है, क्योंकि इसमें निर्दिष्ट आगमिक निर्देशों का परिपालन कर व्यक्ति जीवन को सार्थक बना सकता है। यह ग्रन्थ इस लोक परलोक में समाधि की उपलब्धि का अमोघ माध्यम है। भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नतीसवें अध्ययन में संवेग की महिमा बतायी है। गौतम स्वामी ने पूछा "संवेगेण भन्ते। जीवे किं जणयइ?" भन्ते! संवेग से जीव को क्या प्राप्त होता है? परमात्मा ने कहा-संवेग से जीव अनत्तर धर्म-श्रद्धा को प्राप्त करता है। धर्म श्रद्धा से अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करके दर्शन विशुद्धि के द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का आराधक बन जाता है तथा उसी भव में या तीसरे भव में अवश्य ही मोक्षगामी बनता है। “संवेगरंगशाला" इस ग्रन्थ के कर्ता परमपूज्य महाउपकारी आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी हैं। आप नवांगी टीकाकार परम गीतार्थ आचार्य अभयदेवसूरीश्वरजी के लघु गुरु भ्राता थे। भव-भीरु प्राणियों के मार्गदर्शन हेतु इस विशाल ग्रन्थ की रचना की है। “संवेगरंगशाला" में प्रतिपादित आराधना का स्वरूप : एक तुलनात्मक अध्ययन इस विषय पर साध्वी प्रियदिव्यांजनाश्रीजी ने अथक परिश्रम कर अनुमोदनीय शोध कार्य किया है। इसमें उन्होंने जन-जन को सम्यक् जीवन जीने की शैली एवं आत्मकल्याण का मार्गदर्शन दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 540