Book Title: Jain Dharm Parichaya
Author(s): Ajit Kumar
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Shastrartha Sangh Chhavani

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Page 12
________________ जैन सिद्धान्त । जैन सिद्धान्त में मूल दो पदार्थ माने गये हैं। जीव और अजीव । जिसमें ज्ञानादि गुण पाये जाते हैं, जो जानता देखता है वह जीव है और जिसमें जानने देखने की शक्ति नहीं वह अजीव पदार्थ है। इन्हीं दोनों पदार्थों में सारे पदार्थ शामिल हो जाते हैं। जीव दो प्रकार के होते हैं-मुक्त जीव तथा संसारी जीव । मुक्त जीव वे हैं जो कर्म जंजाल को अपने प्रात्मा से बिलकुल दूर कर चुके हैं, जो फिर कभी जंजाल में फंसकर संसारी नहीं बनेंगे । जिनके ज्ञान, दर्शन, सुख आदि समस्त प्रात्मिक गुण पूर्ण, शुद्ध प्रगट हो चुके हैं, जिनके न शरीर है, न इच्छा है और न किसी प्रकार का दुःख है, भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल की सारी बातों को साफ जानते हैं । उनको परमात्मा, ईश्वर, सिद्ध श्रादि भी कहते हैं। वे एक नहीं अनेक हैं। संसारी जीव वे हैं जो इस संसार में अपने कर्मों के कारण तरह तरह के शरीर, योनि पाते हुये घूमते रहते हैं । अपने २ कर्मों के अनुसार जिनको सुख दुःख आदि मिलते रहते हैं। ___ संसारी जीवों के पाँच प्रकार हैं, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय । जिन जीवों के एक ही स्पर्शन (छूने का ज्ञान कराने वाला यानी त्वचा) इन्द्रिय हो वे एकेन्द्रिय जीव हैं। जैसे-जमोन, पानी, हवा और पेड़। इनमें से जिनमें आत्मा मौजूद हो वह जोव होता है। जैसे-हरा,

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