Book Title: Jain Dharm Parichaya
Author(s): Ajit Kumar
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Shastrartha Sangh Chhavani

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ ( १७ ) जो घर में रहकर जैन धर्म का पालन करें वे गृहस्थ या श्रावक कहलाते हैं और जो घर बार छोड़कर साधु बनकर ऊँचे दर्जे का आचरण पालते हैं वे मुनि कहलाते हैं । मुनि और गृहस्थ श्रावकों को अपने २ दर्जे के अनुसार पालन करने योग्य जो एक बात है वह है "रत्नत्रय" रत्नत्रय का धारण करना जिस प्रकार गृहस्थ के लिये आवश्यक है उसी प्रकार मुनि के लिये भी आवश्यक है। रत्नत्रय । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन बातों को रत्नत्रय कहते हैं । गृहस्थ को इन तीनों को किस प्रकार धारण करना चाहिये प्रथम ही इस बात को बतलाते हैं। सम्यग्दर्शन । देव, शास्त्र गुरू का अपने सच्चे हृदय से श्रद्धान करना, ( विश्वास - यकीन रखना) जैन सिद्धान्त में बतलाये पदार्थों को तथा उसकी अन्य बातों का सच्चा विश्वास ( यकीन ) करना सम्यग्दर्शन है । जैनी के लिये सबसे पहले देव, शास्त्र और गुरू को अपना पूज्य, श्राराध्य समझ कर उनका विश्वास करना आवश्यक है । देव । जैन धर्म में देवों के मूल दो भेद माने गये हैं । अर्हन्त और सिद्ध । पूर्ण मुक्त हुये अर्थात् आठ कर्मों को अपने आत्मा से दूर करके मोक्ष स्थान में पहुँचे हुये परमात्मा को सिद्ध कहते हैं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53