Book Title: Jain Dharm Parichaya
Author(s): Ajit Kumar
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Shastrartha Sangh Chhavani

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Page 16
________________ ( १० ) तक जीव पुद्गल पाये जाते हैं यह पदार्थ भी यहाँ तक पाया जाता है। अंग्रेजी में इस पदार्थ को ईथर के रूप में माना है। अमूर्तिक होने से यह पदार्थ नजर नहीं आता। अधर्म पदार्थ वह कहलाता है जो समस्त पदार्थों को ठहरने (स्थिर रहने ) में बाहरी सहायता करता है-जैसे मुसाफिर को पेड़ की छाया। यह भी श्रमूर्तिक होने से दीख नहीं पड़ता। लोकाकाश में सब जगह मौजूद है। इस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल से छह द्रव्य हैं। पद्गल द्रव्य । पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है इस कारण दिखलाई देता है। इसमें चार विशेष गुण पाये जाते हैं। रंग, गंध, रस और स्पर्श ( ठंडा, गर्म श्रादि छूने का विषय ) यद्यपि ये चारों गुण प्रत्येक पुद्गल पदार्थ में पाये जाते हैं किन्तु किसी किसी पदार्थ में कोई कोई गुण सूक्ष्म यानी इन्द्रियों से न जान सकने योग्य और कोई कोई गुण स्थूल यानी इन्द्रियों द्वारा जान सकने योग्य होता है। जैसे हवा में स्पर्श गुण (ठंडी, गर्म ) तथा कभी गन्ध गुण (खुशबू, बदबू ) तो स्थूल हैं किन्तु रंग और रस सूक्ष्म हैं। इस कारण वे दोनों गुण मालूम नहीं हो पाते। किन्तु जिस समय वही हवा पानी के रूप में बन जाती है। तब उसके वे दोनों गुण भी प्रगट हो जाते हैं इस कारण पानी

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