Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 6
________________ नम्र निवेदन जहाँ उदारता है, प्रेम है, और सम भाव है, वहीं धर्म का निवास है । जगत को आज ऐसे ही उदारं धर्म की आवश्यक्ता है। हम ईसाइयों के धर्म प्रचार को देखकर ईर्षा करते हैं, आर्य समाजियों की कार्य कुशलता पर आश्चर्य करते हैं और वौद्ध, ईशु, स्त्रीस्त, दयानन्द सरस्वती आदि के नामोल्लेख तथा भगवान महावीर का नाम न देख कर दुखी हो जाते हैं ! इसका कारण यही है कि उन उन धर्मानुयाइयों ने अपने धर्म की उदारता बताकर जनता को अपनी ओर आकर्षित कर लिया है और हम अपने जैनधर्म : की उदारता को दबाते रहे, कुचलते रहे और उसका गला घोंटते रहे ! तब बताइये कि हमारे धर्म को कौन जान सकता है,भगवान महावीर को कौन पहिचान सकता है और उदार जैनधर्म का प्रचार कैसे हो सकता है ? इस छोटी सी पुस्तक में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि 'जैनधर्म की उदारता' जगत के प्रत्येक प्राणी को प्रत्येक दशा में अपना सकती है और उसका उद्धार कर सकती है। आशा है कि पाठकगण इसे आद्योपान्त पढ़ कर अपने कर्तव्य को पहिचानेंगे। चन्दावाड़ी सूरत। परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ ४-२-३४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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