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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
क्षमामूर्ति बालि मुनिराज
सद्गुरु का उपदेश सुन, जगा धर्म का प्रेम। तत्क्षण बाली ने किया, सविनय सादर नेम॥ यह सुनकर लंकेश तो, हुए क्रोध आधीन ।
क्षमामूर्ति बाली हुए, तभी स्वात्म में लीन ॥ इस भूतल पर यह सर्वत्र विदित है कि मनुष्यादि प्राणियों के लिए उपजाऊ भूमि ही सदा जीवनोपयोगी खाद्य पदार्थ प्रदान करती है। सजलमेघ ही सदा एवं सर्वत्र स्वच्छ, शीतल जल प्रदान करते हैं। इसी प्रकार इस जम्बूद्वीप में अनेक खण्ड हैं, उनमें से जिस खण्ड के प्राणी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ को साध मुक्ति सुन्दरी के वल्लभ होते हैं, उसी खण्ड को उनकी इस आर्यवृत्ति के कारण आर्यखण्ड नाम से जाना जाता है। इसी आर्यखण्ड की पुष्पवती किष्किंधापुरी नामक नगरी में विद्याधरों के स्वामी कपिध्वजवंशोद्भव महाराजा बालि राज्य
करते थे।
एक दिन सदा स्वरूपानन्द विहारी, निजानन्दभोगी, सिद्ध सादृश्य पूज्य मुनिवरों का संघ सहित आगमन इसी किष्किंधापुरी के वन में हुआ, जिन्हें देख वन के मयूर आनन्द से नाचने लगे। कोयलें अपनी मधुर ध्वनि से कुहुकने लगीं,
मानों सुरीले स्वर में गुरु महिमा के गीत ही गा रहीं हों। पक्षीगण प्रमोद के साथ गुरु समूह के चारों ओर