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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ मैं इन्हें कष्ट देता ही जा रहा हूँ। धन्य है इनकी क्षमा, इस प्रकार विचार करके रावण श्री मुनिराज को नमस्कार करता हुआ अपने अपराधों की क्षमा-याचना करने लगा। ___ श्रीगुरु ने रावण को भी “सद्धर्मवृद्धिरस्तु" कहकर वह भी दुःखों से मुक्त हो ऐसा अभिप्राय व्यक्त किया। वीतरागी संतों का जगत में कोई शत्रु-मित्र नहीं है। अरि-मित्र महल-मशान, कंचन-काच निन्दन-थुति करन। अर्घावतारण असिप्रहारण, में सदा समता धरन ॥ . ___ श्री गुरु से धर्मलाभ का आशीर्वाद प्राप्त कर रावण अपने विमान में बैठकर अपने इच्छित स्थान को चला गया। ____ अनेक वन-उपवनों में विहार करते हुए भावी सिद्ध भगवान अनन्तसिद्धों के सिद्धिधाम कैलाशपर्वत पर तो कुछ समय से विराजमान थे ही, वह पावन भूमि पुनः गुरुवर के चरण स्पर्श से पावन हो गयी। दो तीर्थों का मिलन – एक भावतीर्थ और दूसरा स्थापनातीर्थ, एक चेतनतीर्थ और दूसरा अचेतनतीर्थ। हमें ऐसा लगता होगा कि क्या भावी भगवान तीर्थयात्रा हेतु आये होंगे, अरे ! गुरुवर तो स्वयं रत्नत्रयरूप परिणमित जीवन्ततीर्थ हैं।
पूज्य गुरुवर ध्यानस्थ हैं....अहा, ऐसे वीतरागी महात्मा मेरे शीष पर पधारे !.... इस प्रकार हर्षित होता हुआ मानों वह पर्वत अपने को गौरवशाली मानने लगा। श्रृंगराज अभी तक यही समझता था कि इस लोक में मैं ही एक अचल हूँ, परन्तु अपने से अनन्तगुणे अचल महात्मा को देखकर वह भी आश्चर्यचकित रह गया, मानों वह सोच रहा हो कि दशानन की शक्ति एवं विद्या ने मुझे तो हिला दिया, लेकिन ये गुरु कितने अकम्प हैं कि जिनके बल से मैं भी अकम्प रह सका। वृक्ष समूह सोचता है कि क्या ग्रीष्म का ताप गुरुवर पर अपना प्रभाव नहीं डालता होगा?