Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 66
________________ 64 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ चेलना - नाथ ! आपने कैसा भी उपसर्ग किया, पर ये वीतरागी मुनिराज तो स्वयं के क्षमा धर्म में अडिग ही रहे हैं और ऊपर भी करुणा दृष्टि रखकर आपको धर्मवृद्धि का आशीर्वाद दिया है। प्रभो ! वीतरागी मुनिवरों का यह जैनधर्म ही उत्तम है। आप इस धर्म की शरण ग्रहण करो। जैनधर्म की शरण से कैसे भी भंयकर पापों का नाश हो जाता है। ___अभय - पिताजी ! अब अन्तर की उमंग से जैनधर्म को स्वीकार करो और सर्व पापों का प्रायश्चित्त कर लो। चेलना माता के प्रताप से आपने यह धन्य अवसर पाया है। श्रेणिक- (गद्गद् होकर) प्रभो! प्रभो! मेरे अपराध क्षमा करो प्रभो! इस पापी का उद्धार करो। अरे रे ! जैनधर्म की विराधता करके मैंने भयंकर अपराध किया, इस पाप से मैं कब छूटूंगा। प्रभो ! मुझको शरण दो ! मैं अब जैनधर्म की शरण ग्रहण करता हूँ- “मुझको अरिहंत भगवान की शरण हो। मुझको सिद्ध भगवान की शरण हो। मुझको जैन मुनिवरों की शरण हो। मुझको जैनधर्म की शरण हो।" प्रभु पतित पावन मैं अपावन, चरण आयो शरण जी। यो विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरण जी। तुम ना पिछान्यो आन मान्यो, देव विविध प्रकार जी। या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी। धन घड़ी यो धन दिवस यो, ही धन जनम मेरो भयो। अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभु को लख लयो। मैं हाथ जोड़ नवाऊँ मस्तक, विनवू तव चरण जी। - करना क्षमा मुझ अधम को, तुम सुनो तारनतरन जी। हे नाथ ! मैं मन से, वचन से, काया से, सर्व प्रकार से, आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में पवित्र जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ। प्रभो! मेरे अपराध क्षमा करो।" मुनिराज - हे राजन् ! जैनधर्म के प्रताप से तुम्हारा कल्याण हो,

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