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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
हाय ! मैं मर गया..... जिसप्रकार स्वप्न में मरनेवाला, जागने पर जीवित ही रहता है, उसी प्रकार स्वप्न में हुआ मरण का दुःख भी जागृतदशा में नहीं रहता।
एक मनुष्य गहरी नींद में सो रहा था उसको स्वप्न आया कि 'मैं मर गया हूँ' - इसप्रकार अपना मरण जानकर वह जीव बहुत दुःखी और भयभीत हुआ और जोर-जोर से चिल्लाने लगा- हाय ! मैं मर गया...। तब किसी सज्जन ने उसे जगाया और कहा- अरे भाई! तू जीवित है, मरा नहीं।
जागते ही उसने देखा - 'अरे, मैं तो जिंदा ही हूँ, मरा नहीं। स्वप्न में मैंने अपने को मरा हुआ माना, इसलिए मैं दुःखी हुआ, लेकिन मैं वास्तव में जीवित हूँ।' इसप्रकार अपने को जीवित जानकर वह आनन्दित हुआ। उसे मृत्यु सम्बन्धी जो दुःख था, वह दूर हो गया। अरे, यदि वह मर गया होता तो 'मैं मर गया हूँ- ऐसा कौन जानता ? ऐसा जाननेवाला तो जिवित ही है।
इसप्रकार मोहनिद्रा में सोनेवाला जीव देहादिक के संयोग-वियोग में स्वप्न की भाँति ऐसा मानता है कि मैं जीवित हूँ, मैं मरा हूँ, मैं मनुष्य · हो गया, मैं तिर्यंच हो गया' - ऐसी मान्यता से वह बहुत दु:खी होता है। जब ज्ञानियों ने उसे जगाया/समझाया और जड़-चेतन की भिन्नता बतायी। तब जागते/समझते ही उसे यह भान हुआ कि 'अरे ! मैं तो अविनाशी चैतन्य हूँ और यह शरीर तो जड़ है। मैं इस शरीर जैसा नहीं हूँ शरीर के संयोग -वियोग से मेरा जन्म-मरण नहीं होता।'
ऐसा भान होते ही उसका दुःख दूर हुआ कि - ‘वाह ! जन्म-मरण मेरे में नहीं होता, देह के वियोग से मेरा मरण नहीं होता, मैं तो सदा जीवन्त चैतन्यमय हूँ। मैं मनुष्य या मैं तिर्यंच नहीं हुआ। मैं तो शरीर से भिन्न चैतन्य ही हूँ। यदि मैं शरीर से भिन्न न होता तो शरीर छूटते ही मैं भी समाप्त हो जाता ? मैं तो जाननहार स्वरूप से सदा जीवन्त हूँ।'