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जैन धर्म की कहानि
भाग-12
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: प्रकाशक: अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन, खैरागढ़
कहान स्मृति प्रकाशन, सोनगढ़
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श्रीमती धुड़ीबाई खेमराज गिड़िया ग्रन्थमाला संक्षिप्त परिचय
श्री खेमराज गिड़िया श्रीमती धुड़ीबाई गिड़िया जिनके विशेष आशीर्वाद व सहयोग से ग्रन्थमाला की स्थापना हुई तथा जिसके अन्तर्गत प्रतिवर्ष धार्मिक साहित्य प्रकाशित करने का कार्यक्रम सुचारु रूप से चल रहा है, ऐसी इस ग्रन्थमाला के संस्थापक श्री खेमराज गिड़िया का संक्षिप्त परिचय देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं -
जन्म : सन् 1919 चांदरख (जोधपुर) पिता : श्री हंसराज, माता : श्रीमती मेहंदीबाई
शिक्षा/व्यवसाय : मात्र प्रायमरी शिक्षा प्राप्त कर मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही व्यवसाय में लग गए।
सत्-समागम : सन् 1950 में पूज्य श्रीकानजीस्वामी का परिचय सोनगढ़ में हुआ।
ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा : मात्र 34 वर्ष की उम्र में सन् 1953 में पूज्य स्वामीजी से सोनगढ़ में ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा ली।
परिवार : आपके 4 पुत्र एवं 2 पुत्रियाँ हैं। पुत्र - दुलीचन्द, पन्नालाल, मोतीलाल एवं प्रेमचंद। तथा पुत्रियाँ - ब्र. ताराबेन एवं मैनाबेन । दोनों पुत्रियों ने मात्र 18 वर्ष एवं 20 वर्ष की उम्र में ही आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेकर सोनगढ़ को ही अपना स्थायी निवास बना लिया।
विशेष : भावनगर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में भगवान के माता-पिता बने। सन् 1959 में खैरागढ़ में जिनमंदिर निर्माण कराया एवं पूज्य गुरुदेवश्री के शुभ हस्ते प्रतिष्ठा में विशेष सहयोग दिया। सन् 1988 में 25 दिवसीय 70 यात्रियों सहित दक्षिण तीर्थयात्रा संघ निकाला एवं अनेक सामाजिक कार्यों के अलावा अब व्यवसाय से निवृत्त होकर अधिकांश समय सोनगढ़ में रहकर आत्म-साधना में बिताते हैं।
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श्रीमती धुड़ीबाई खेमराज गिड़िया ग्रंथमाला का १८ वाँ पुष्प
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जैनधर्म की कहानियाँ
(भाग-12)
::सम्पादक: ब्र. हरिलाल जैन, सोनगढ़
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सम्पादक: पण्डित रमेशचन्द जैन शास्त्री, जयपुर
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प्रकाशक: अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन महावीर चौक, खैरागढ़ - ४९१ ८८१ (छत्तीसगढ़)
और श्री कहान स्मृति प्रकाशन सन्त सान्निध्य, सोनगढ़ - ३६४ २५० (सौराष्ट्र)
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अबतक संस्करण: 10,000 प्रतियाँ तृतीय संस्करण : 2200 प्रतियाँ
(21 फरवरी, 2012) श्री आदिनाथ दिग. जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, जयपुर के अवसर पर
न्योछावर-दस रुपये मात्र
प्राप्ति स्थान -
1. अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन, शाखा - खैरागढ़
श्री खेमराज प्रेमचंद जैन, 'कहान-निकेतन' खैरागढ़ - 491881, जि. राजनांदगाँव (म.प्र.)
2. पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट
ए-४, बापूनगर, जयपुर - 302015 (राज.)
3. ब्र. ताराबेन मैनाबेन जैन
'कहान रश्मि', सोनगढ़ - 364250 जि. भावनगर (सौराष्ट्र)
टाईप सेटिंग एवं मुद्रणजैन कम्प्यूटर्स, ए-4, बापूनगर, जयपुर - 302015 फैक्स : 0141-2708965 मोवा. : 094147 17816
अनुक्रमणिका 1.क्षमामूर्ति बालि मुनिराज 9 2. महारानी चेलना 3.सुन्दर चित्र कौन ? 77 4. हाय ! मैं मर गया..... 5.भाग ११ में प्रकाशित 79
पहेलियों व प्रश्नों के उत्तर
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प्रकाशकीय पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी द्वारा प्रभावित आध्यात्मिक क्रान्ति को जन-जन तक पहुँचाने में पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर के डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल का योगदान अविस्मरणीय है, उन्हीं के मार्गदर्शन में अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन की स्थापना की गई है। फैडरेशन की खैरागढ़ शाखा का गठन २६ दिसम्बर, १९८० को पण्डित ज्ञानचन्दजी, विदिशा के शुभ हस्ते किया गया। तब से आज तक फैडरेशन के सभी उद्देश्यों की पूर्ति इस शाखा के माध्यम से अनवरत हो रही है। - इसके अन्तर्गत सामूहिक स्वाध्याय, पूजन, भक्ति आदि दैनिक कार्यक्रमों के साथ-साथ साहित्य प्रकाशन, साहित्य विक्रय, श्री वीतराग विद्यालय, ग्रन्थालय, कैसेट लायब्रेरी, साप्ताहिक गोष्ठी आदि गतिविधियाँ उल्लेखनीय हैं; साहित्य प्रकाशन के कार्य को गति एवं निरंतरता प्रदान करने के उद्देश्य से सन् १९८८ में श्रीमती धुड़ीबाई खेमराज गिड़िया ग्रन्थमाला की स्थापना की गई। इस ग्रन्थमाला के परम शिरोमणि संरक्षक सदस्य २१००१/- में, संरक्षक शिरोमणि सदस्य ११००१/- में तथा परमसंरक्षक सदस्य ५००१/- में भी बनाये जाते हैं, जिनके नाम प्रत्येक प्रकाशन में दिये जाते हैं। __ पूज्य गुरुदेव के अत्यन्त निकटस्थ अन्तेवासी एवं जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन उनकी वाणी को आत्मसात करने एवं लिपिबद्ध करने में लगा दियाऐसे ब्र. हरिभाई का हृदय जब पूज्य गुरुदेवश्री का चिर-वियोग (वीर सं. २५०६ में) स्वीकार नहीं कर पा रहा था, ऐसे समय में उन्होंने पूज्य गुरुदेवश्री की मृत देह के समीप बैठे-बैठे संकल्प लिया कि जीवन की सम्पूर्ण शक्ति एवं सम्पत्ति का उपयोग गुरुदेवश्री के स्मरणार्थ ही खर्च करूँगा।
तब श्री कहान स्मृति प्रकाशन का जन्म हुआ और एक के बाद एक गुजराती भाषा में सत्साहित्य का प्रकाशन होने लगा, लेकिन अब हिन्दी, गुजराती दोनों भाषा के प्रकाशनों में श्री कहान स्मृति प्रकाशन का सहयोग प्राप्त हो रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप नये-नये प्रकाशन आपके सामने हैं।
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साहित्य प्रकाशन के अन्तर्गत् जैनधर्म की कहानियाँ भाग १ से १९ तक एवं लघु जिनवाणी संग्रह : अनुपम संग्रह, चौबीस तीर्थंकर महापुराण (हिन्दीगुजराती), पाहुड़ दोहा-भव्यामृत शतक-आत्मसाधना सूत्र, विराग सरिता तथा लघुतत्त्वस्फोट, अपराध क्षणभर का (कॉमिक्स) – इसप्रकार २७ पुष्प प्रकाशित किये जा चुके हैं।
जैनधर्म की कहानियाँ भाग १२ के रूप में ब्र. हरिभाई सोनगढ़ द्वारा लिखित क्षमामूर्ति बालि मुनिराज, महारानी चेलना आदि
एवं भाग ११ में प्रकाशित पहेलियों व प्रश्नों के उत्तर को प्रकाशित किया गया है। जिसकी अबतक १० हजार प्रतियाँ समाज में पहुंच चुकी हैं। इसका सम्पादन पण्डित रमेशचंद जैन शास्त्री, जयपुर ने किया है। अत: हम उनके आभारी हैं।
आशा है पुराण पुरुषों की कथाओं से पाठकगण अवश्य ही बोध प्राप्त कर सन्मार्ग पर चलकर अपना जीवन सफल करेंगे। __ जैन बाल साहित्य अधिक से अधिक संख्या में प्रकाशित हो। ऐसी भावी योजना में शान्तिनाथ पुराण, आदिनाथ पुराण आदि प्रकाशित करने की योजना है। ___ साहित्य प्रकाशन फण्ड, आजीवन ग्रन्थमाला शिरोमणि संरक्षक, परमसंरक्षक एवं संरक्षक सदस्यों के रूप में जिन दातार महानुभावों का सहयोग मिला है, हम उन सबका भी हार्दिक आभार प्रकट करते हैं, आशा करते हैं कि भविष्य में भी सभी इसी प्रकरितसहयोग प्रदान करते रहेंगे। . मोतीलाल जैन
प्रेमचन्द जैन साहित्य प्रकाशन प्रमुख
अध्यक्ष
आवश्यक सूचना पुस्तक प्राप्ति अथवा सहयोग हेतु राशि ड्राफ्ट द्वारा “अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन, खैरागढ़" के नाम से भेजें। हमारा बैंक खाता स्टेट बैंक आफ इण्डिया की खैरागढ़ शाखा में है।
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विनम्र आदराञ्जली
जन्म 1/12/1978 (खैरागढ़, म.प्र.)
स्वर्गवास 2/2/1993 (दुर्ग पंचकल्याणक)
स्व. तन्मय (पुखराज) गिड़िया अल्पवय में अनेक उत्तम संस्कारों से सुरभित, भारत के सभी तीर्थों की यात्रा, पर्यों में यम-नियम में कट्टरता, रात्रि भोजन त्याग, टी.वी. देखना त्याग, देवदर्शन, स्वाध्याय, पूजन आदि छह आवश्यक में हमेशा लीन, सहनशीलता, निर्लोभता, वैरागी, सत्यवादी, दान शीलता से शोभायमान तेरा जीवन धन्य है।
अल्पकाल में तेरा आत्मा असार-संसार से मुक्त होगा (वह स्वयं कहता था कि मेरे अधिक से अधिक 3 भव बाकी हैं।) चिन्मय तत्त्व में सदा के लिए तन्मय हो जावे - ऐसी भावना के साथ यह वियोग का वैराग्यमय प्रसंग हमें भी संसार से विरक्त करके मोक्षपथ की प्रेरणा देता रहे - ऐसी भावना है।
हम हैं दादा स्व. श्री कंवरलाल जैन दादी स्व. मथुराबाई जैन
पिता श्री मोतीलाल जैन माता श्रीमती शोभादेवी जैन ( बुआ श्रीमती ढेलाबाई फूफा स्व. तेजमाल जैन
जीजा श्री शुद्धात्मप्रकाश जैन जीजी सौ. श्रद्धा जैन, विदिशा जीजा श्री योगेशकुमार जैन जीजी सौ. क्षमा जैन, धमतरी
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हमारे मार्गदर्शक
श्री दुलीचंद बरडिया राजनांदगाँव पिता – स्व. फतेलालजी बरडिया
श्रीमती स्व. सन्तोषबाई बरडिया पिता – स्व. सिरेमलजी सिरोहिया
सरल स्वभावी बरडिया दम्पत्ति अपने जीवन में वर्षों से सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों से जुड़े हैं। सन् 1993 में आप लोगों ने 80 साधर्मियों को तीर्थयात्रा कराने का पुण्य अर्जित किया है। इस अवसर पर स्वामी वात्सल्य कराकर और जीवराज खमाकर शेष जीवन धर्मसाधना में बिताने का मन बनाया है।
विशेष -आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य श्री कानजीस्वामी के दर्शन और ) सत्संग का लाभ लिया है।
परिवार पुत्र पुत्रवधु पुत्री दामाद ललित लीला
गौतमचंद बोथरा, स्व. निर्मल प्रभा
भिलाई अनिल मंजु शशिकला अरुणकुमार पालावत, सुशील सुधा
चन्द्रकला
जयपुर
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ग्रन्थमाला सदस्यों की सूची परमशिरोमणि संरक्षक सदस्य श्रीमती कंचनदेवी दुलीचन्द जैन गिड़िया, खैरागढ़ श्री हेमल भीमजी भाई शाह, लन्दन
दमयन्तीबेन हरीलाल शाह चैरिटेबल ट्रस्ट, मुम्बई श्री विनोदभाई देवसी कचराभाई शाह, लन्दन | श्रीमती रूपाबैन जयन्तीभाई ब्रोकर, मुम्बई श्री स्वयं शाह ओस्त्रो व्स्की ह. शीतल विजेन संरक्षक सदस्य श्रीमती ज्योत्सना बेन विजयकान्त शाह, अमेरिका श्रीमती शोभादेवी मोतीलाल गिड़िया, खैरागढ़ श्रीमती मनोरमादेवी विनोदकुमार, जयपुर श्रीमती धुड़ीबाई खेमराज गिड़िया, खैरागढ़ पं. श्री कैलाशचन्द पवनकुमार जैन, अलीगढ़ श्रीमती ढेलाबाई तेजमाल नाहटा, खैरागढ़ श्रीजयन्तीलालचिमनलालशाहह.सुशीलाबेन अमेरिका श्री शैलेषभाई जे. मेहता, नेपाल श्रीमतीसोनिया समीतभायाणी
| ब्र. ताराबेन ब्र. मैनाबेन, सोनगढ़ मीरायाम प्रशांतभायाणीअमेरिका स्व. अमराबाई नांदगांव, ह. श्री घेवरचंद डाकलिया श्रीमतीअर्चनादेवीध.प. श्रीसतीशचन्दजीजैन (ठेकेदार) श्रीमती चन्द्रकला गौतमचन्द बोथरा, भिलाई शिरोमणि संरक्षक सदस्य
श्रीमती गुलाबबेन शांतिलाल जैन, भिलाई झनकारीबाई खेमराज बाफना चेरिटेबल ट्रस्ट, खैरागढ़ श्रीमती राजकुमारी महावीरप्रसाद सरावगी, कलकत्ता मीनाबेन सोमचन्द भगवानजी शाह, लन्दन | श्री प्रेमचन्द रमेशचन्द जैन शास्त्री, जयपुर श्री अभिनन्दनप्रसाद जैन, सहारनपुर श्री प्रफुल्लचन्द संजयकुमार जैन, भिलाई श्रीमती सूरजबेन अमुलखभाई सेठ, मुम्बई स्व. लुनकरण, झीपुबाई कोचर, कटंगी श्रीमती ज्योत्सना महेन्द्र मणीलाल मलाणी, माटुंगा | स्व. श्री जेठाभाई हंसराज, सिकंदराबाद स्व. धापू देवी ताराचन्द गंगवाल, जयपुर श्री शांतिनाथ सोनाज, अकलूज ब्र. कुसुम जैन, कुम्भोज बाहुबली
श्रीमती पुष्पाबेन चन्दुलाल मेघाणी, कलकत्ता श्रीमती पुष्पलता अजितकुमारजी, छिन्दवाड़ा श्री लवजी बीजपाल गाला, बम्बई सौ. सुमन जैन जयकुमारजी जैन डोगरगढ़ स्व. कंकुबेन रिखबदास जैन ह. शांतिभाई, बम्बई परमसंरक्षक सदस्य
एक मुमुक्षुभाई, ह. सुकमाल जैन, दिल्ली श्रीमती शान्तिदेवी कोमलचंद जैन, नागपुर
| श्रीमती शांताबेन श्री शांतिभाई झवेरी, बम्बई श्रीमती पुष्पाबेन कांतिभाई मोटाणी, बम्बई
स्व. मूलीबेन समरथलाल जैन, सोनगढ़ श्रीमती हसुबेन जगदीशभाई लोदरिया, बम्बई | श्रीमती सुशीलाबेन उत्तमचंद गिड़िया, रायपुर श्रीमती लीलादेवी श्री नवरत्नसिंह चौधरी, भिलाई |स्व. रामलाल पारख, ह. नथमल नांदगांव श्रीयुत प्रशान्त-अक्षय-सुकान्त-केवल, लन्दन
|श्री बिशम्भरदास महावीरप्रसाद जैन सर्राफ, दिल्ली श्रीमती पुष्पाबेन भीमजीभाई शाह, लन्दन
| श्रीमती जैनाबाई, भिलाई ह. कैलाशचन्द शाह श्री सुरेशभाई मेहता, बम्बई एवं श्री दिनेशभाई, मोरबी सौ. रमाबेन नटवरलाल शाह, जलगाँव श्री महेशभाई मेहता, बम्बई एवं
सौ. सविताबेन रसिकभाई शाह, सोनगढ़ श्री प्रकाशभाई मेहता, नेपाल
श्री फूलचंद विमलचंद झांझरी उज्जैन, श्री रमेशभाई, नेपाल एवं श्री राजेशभाई मेहता, मोरबी श्रीमती पतासीबाई तिलोकचंद कोठारी, जालबांधा श्रीमती वसंतबेन जेवंतलाल मेहता, मोरबी | श्री छोटालाल केशवजी भायाणी, बम्बई स्व.हीराबाई, हस्ते-श्री प्रकाशचंद मालू, रायपुर
| श्रीमती जशवंतीबेन बी. भायाणी, घाटकोपर श्रीमती चन्द्रकला प्रेमचन्द जैन, खैरागढ़ स्व. भैरोदान संतोषचन्द कोचर, कटंगी स्व. मथुराबाई कँवरलाल गिड़िया, खैरागढ़ | श्री चिमनलाल ताराचंद कामदार, जैतपुर सरिता बेन ह. पारसमल महेन्द्रकुमार जैन, तेजपुर श्री तखतराज कांतिलाल जैन, कलकत्ता
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श्रीमती ढेलाबाई चेरिटेबल ट्रस्ट, खैरागढ़ |स्व. सुशीलाबेन हिम्मतलाल शाह, भावनगर श्रीमती तेजबाई देवीलाल मेहता, उदयपुर |श्री किशोरकुमार राजमल जैन, सोनगढ़ श्रीमती सुधा सुबोधकुमार सिंघई, सिवनी श्री जयपाल जैन, दिल्ली गुप्तदान, हस्ते - चन्द्रकला बोथरा, भिलाई | श्री सत्संग महिला मण्डल, खैरागढ़ श्री फूलचंद चौधरी, बम्बई
श्रीमती किरण - एस.के. जैन, खैरागढ़ सौ. कमलाबाई कन्हैयालाल डाकलिया, खैरागढ़ |स्व. गेंदामल - ज्ञानचन्द - सुमतप्रसाद, खैरागढ़ श्री सुगालचंद विरधीचंद चोपड़ा, जबलपुर |स्व. मुकेश गिड़िया स्मृति ह. निधि-निश्चल, खैरागढ़ श्रीमती सुनीतादेवी कोमलचन्द कोठारी, खैरागढ़ | सौ. सुषमा जिनेन्द्रकुमार, खैरागढ़ श्रीमती स्वर्णलता राकेशकुमार जैन, नागपुर | श्री अभयकुमार शास्त्री, ह. समता-नम्रता, खैरागढ़ श्रीमती कंचनदेवी पन्नालाल गिड़िया, खैरागढ़ स्व. वसंतबेन मनहरलाल कोठारी, बम्बई श्री लक्ष्मीचंद सुन्दरबाई पहाड़िया, कोटा सौ. अचरजकुमारी श्री निहालचन्द जैन, जयपुर श्री शान्तिकुमार कुसुमलता पाटनी, छिन्दवाड़ा सौ. गुलाबदेवी लक्ष्मीनारायण रारा, शिवसागर श्री छीतरमल बाकलीवाल जैन ट्रेडर्स, पीसांगन सौ. शोभाबाई भवरीलाल चौधरी, यवतमाल श्री किसनलाल देवड़िया ह. जयकुमारजी, नागपुर सौ. ज्योति सन्तोषकुमार जैन, डोभी सौ. चिंताबाई मिठूलाल मोदी, नागपुर श्री बाबूलाल तोताराम लुहाड़िया, भुसावल श्री सुदीपकुमार गुलाबचन्द, नागपुर
स्व. लालचन्द बाबूलाल लुहाड़िया, भुसावल सौ. शीलाबाई मुलामचन्दजी, नागपुर
सौ. ओमलता लालचन्द जैन, भुसावल सौ. मोतीदेवी मोतीलाल फलेजिया, रायपुर श्री योगेन्द्रकुमार लालचन्द लुहाड़िया, भुसावल सौ. सुमन जयकुमार जैन, डोंगरगढ़
श्री ज्ञानचन्द बाबूलाल लुहाड़िया, भुसावल समकित महिला मंडल, डोंगरगढ़
सौ. साधना ज्ञानचन्द जैन लुहाड़िया, भुसावल सौ. कंचनदेवी जुगराज कासलीवाल, कलकत्ता | श्री देवेन्द्रकुमार ज्ञानचन्द लुहाड़िया, भुसावल श्री दि. जैन मुमुक्षु मण्डल, सागर
श्री महेन्द्रकुमार बाबूलाल लुहाड़िया, भुसावल सौ. शांतिदेवी धनकुमार जैन, सूरत
सौ. लीना महेन्द्रकुमार जैन, भुसावल श्री चिन्द्रूप शाह, बम्बई
श्री चिन्तनकुमार महेन्द्रकुमार जैन, भुसावल स्व. फेफाबाई पुसालालजी, बैंगलोर
श्री कस्तूरी बाई बल्लभदास जैन, जबलपुर ललितकुमार डॉ. श्री तेजकुमार गंगवाल, इन्दौर स्व.यशवंत छाजेड़ ह.श्री पन्नालाल जैन, खैरागढ़ स्व. नोकचन्दजी, ह. केशरीचंद सावा सिल्हाटी अनुभूति-विभूति अतुल जैन, मलाड कु. वंदना पन्नालालजी जैन, झाबुआ
श्री आयुष्य जैन संजय जैन, दिल्ली कु. मीना राजकुमार जैन, धार
श्री सम्यक अरुण जैन, दिल्ली सौ. वंदना संदीप जैनी ह.कु. श्रेया जैनी, नागपुर श्री सार्थक अरुण जैन, दिल्ली सौ. केशरबाई ध.प. स्व. गुलाबचन्द जैन, नागपुर | श्री केशरीमल नीरज पाटनी, ग्वालियर जयवंती बेन किशोरकुमार जैन
श्री परागभाई हरिवहन सत्यपंथी, अहमदाबाद श्री मनोज शान्तिलाल जैन
लक्ष्मीबेन वीरचन्द शाह ह. शारदाबेन, सोनगढ़ श्रीमती शकुन्तला अनिलकुमार जैन, मुंगावली | श्री प्रशम जीतूभाई मोदी, सोनगढ़ इंजी.आरती पिता श्री अनिलकुमार जैन, मुंगावली |श्री हेमलाल मनोहरलाल सिंघई, बोनकट्टा श्रीमती पानादेवी मोहनलाल सेठी, गोहाटी स्व. दुर्गा देवी स्मृति ह. दीपचन्द चौपड़ा, खैरागढ़ श्रीमती माणिकबाई माणिकचन्द जैन, इन्दौर | श्री पारसमल महेन्द्रकुमार, तेजपुर श्रीमती भूरीबाई स्व. फूलचन्द जैन, जबलपुर । शाह श्री कैलाशचन्दजी मोतीलालजी, भिलाई
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
क्षमामूर्ति बालि मुनिराज
सद्गुरु का उपदेश सुन, जगा धर्म का प्रेम। तत्क्षण बाली ने किया, सविनय सादर नेम॥ यह सुनकर लंकेश तो, हुए क्रोध आधीन ।
क्षमामूर्ति बाली हुए, तभी स्वात्म में लीन ॥ इस भूतल पर यह सर्वत्र विदित है कि मनुष्यादि प्राणियों के लिए उपजाऊ भूमि ही सदा जीवनोपयोगी खाद्य पदार्थ प्रदान करती है। सजलमेघ ही सदा एवं सर्वत्र स्वच्छ, शीतल जल प्रदान करते हैं। इसी प्रकार इस जम्बूद्वीप में अनेक खण्ड हैं, उनमें से जिस खण्ड के प्राणी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ को साध मुक्ति सुन्दरी के वल्लभ होते हैं, उसी खण्ड को उनकी इस आर्यवृत्ति के कारण आर्यखण्ड नाम से जाना जाता है। इसी आर्यखण्ड की पुष्पवती किष्किंधापुरी नामक नगरी में विद्याधरों के स्वामी कपिध्वजवंशोद्भव महाराजा बालि राज्य
करते थे।
एक दिन सदा स्वरूपानन्द विहारी, निजानन्दभोगी, सिद्ध सादृश्य पूज्य मुनिवरों का संघ सहित आगमन इसी किष्किंधापुरी के वन में हुआ, जिन्हें देख वन के मयूर आनन्द से नाचने लगे। कोयलें अपनी मधुर ध्वनि से कुहुकने लगीं,
मानों सुरीले स्वर में गुरु महिमा के गीत ही गा रहीं हों। पक्षीगण प्रमोद के साथ गुरु समूह के चारों ओर
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
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उड़ने लगे, मानों वे श्री गुरुओं की प्रदक्षिणा दे रहे हों । वनचर प्राणी गुरुगम्भीर मुद्रा को निरखकर अपने आगे के दोनों पैर रूपी हाथों को जोड़कर मस्तक नवाकर नमस्कार करके गुरु पदपंकजों के समीप बैठ गये। सदा वन में जीवन-यापन करने वाले मनुष्यों ने तो मानों अनुपम निधि ही प्राप्त कर ली हो । वन में मुनिराज को देखकर वनपाल का हृदय पुलकित हो गया और वह दौड़ता हुआ राजदरबार में पहुँचा और हाथ जोड़कर राजा साहब को मंगल सन्देश देता हुआ बोला
datt
हे राजन् ! आज हमारे महाभाग्य से अपने ही वन में संघ सहित मुनिराज का मंगल आगमन हुआ है।
महाराजा बालि ने तत्काल हाथ जोड़कर सात कदम चलकर मस्तक नवाकर गुरुवर्यों को परोक्ष नमस्कार किया, पश्चात् वनपाल को भेंट स्वरूप बहुमूल्य उपहार दिए। उसे पाकर वनपाल अपने स्थान को लौट
आया ।
महाराजा बलि ने मंत्री को बुलाकर कहा - आज नगर में मुनिवरों के दर्शनार्थ चलने की भेरी बजवा दीजिए ।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
महाराज की आज्ञानुसार मंत्री ने तत्काल नगर में भेरी बजवा दी "हे नगरवासीजनो ! आज हम सभी को मुनिवरों के दर्शन हेतु राजा साहब के साथ वन में चलना है, अतः शीघ्र ही राजदरबार में एकत्रित होइए । " भेरी का मंगल नाद सुन प्रजाजन शीघ्र ही द्रव्य-भाव शुद्धि के साथ अपने-अपने
●
हाथों में अर्घ्य की
थाली
लेकर
राजदरबार में एकत्रित
हुए ।
राजा बालि
गजारूढ़ हो अपने
साधर्मियों के साथ
मंगल भावना भाते
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हुए वन की ओर चल दिये। राजा साहब देखते हैं कि आज तो जंगल की छटा ही कुछ निराली दिख रही है, मानों गुरु हृदय की परमशान्ति का प्रभाव वन के पेड़-पौधों पर भी पड़ गया हो। इन सबके अन्दर भी तो शाश्वत परमात्मा विराजमान है और आत्मा का स्वभाव सुखशान्तिमय है। ये सभी सदा दुःख से डरते हैं और सुख को चाहते हैं, भले ही इनमें ज्ञान की हीनता से यह ज्ञात न हो कि मेरे परमहितकारी गुरुवर पधारे हैं, परन्तु अव्यक्त रूप से उनकी परिणति में कुछ कषाय की मन्दताजन्य शान्ति का संचार अवश्य हो रहा है। ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है।
प्रत्येक आत्मा को भगवान स्वरूप देखते हुए, विचारते हुए राजा बालि साधर्मियों सहित पूज्य गुरुवर के चरणारविंदों के समीप जा पहुँचे । सभी ने पूज्य गुरुवर्यों को हाथ जोड़कर साष्टांग नमस्कार किया, तीन
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ प्रदक्षिणा दी, फिर गुरुचरणों में सभी हाथ जोड़कर उनकी शान्त-प्रशान्त वैरागी मुद्रा को देखते हुए टकटकी लगाये हुए बैठ गये। अहा हा ! ज्ञानवैराग्यमयी परमशान्त मुद्रा का/चैतन्य का आन्तरिक वैभव बाह्य जड़ पुद्गल पर छा गया था। मुनिसंघ मानों सिद्धों से बातें करते हुए ध्यानस्थ अडोल-अकम्प विराजमान था। __धर्मामृत के पिपासु चातक तो बैठे ही हैं। कुछ समय बाद मुनिराजों का ध्यान भंग हुआ। महा-विवेक के धनी गुरुराज ने प्रजाजनों के नेत्रों से उनकी पात्रता एवं भावना को पढ़ लिया, अतः वे उन्हें धर्मोपदेश देने लगे।
"हे भव्यो! धर्मपिता श्री तीर्थंकर परमदेव ने धर्म का मूल सम्यग्दर्शन कहा है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के यथार्थ श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। जिन्होंने निजात्मा के आश्रय से रत्नत्रय को प्राप्त कर अर्थात् मुनिधर्म साधन द्वारा अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर लिया है, वे वीतरागी, सर्वज्ञ तथा हितोपदेशी ही हमारे सच्चे आप्त/देव हैं। वे ही अपने केवलज्ञान के द्वारा जाति अपेक्षा छह और संख्या अपेक्षा अनन्तानंत द्रव्यों को, सात तत्त्वों को, नव पदार्थों को, ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध को, कर्ता-कर्म, भोक्ता-भोग्य
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ आदि सम्बन्धों को अर्थात् तीन लोक और तीन काल के चराचर पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष एक ही समय में जानते हैं एवं अपनी दिव्यध्वनि द्वारा दर्शाते हैं, अतः प्रभु की वाणी ही जिनवाणी या सुशास्त्र कहलाते हैं। ऐसे देव क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषों से रहित और सम्यक्त्वादि अनन्त गुणों से सहित हैं। यही कारण है कि प्रभु की वाणी परिपूर्ण शुद्ध, निर्दोष एवं वीतरागता की पोषक होती है। उस वाणी के अनुसार जिनका जीवन है, जो परम दिगम्बर मुद्राधारी हैं, ज्ञान-ध्यानमयी जिनका स्वरूप है, जो २४ प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, वे ही हमारे सच्चे गुरु हैं। भव दुःख से भयभीत, अपने हित का इच्छुक भव्यात्मा ऐसे देव-शास्त्र-गुरु की आराधना करता है।
इनके अतिरिक्त जो मोहमुग्ध देव हैं, संसार पोषक शास्त्र हैं और रागी-द्वेषी एवं परिग्रहवंत गुरु हैं, उनकी वंदना कभी नहीं करना चाहिए; क्योंकि वीतराग-धर्म गुणों का उपासक है कोई व्यक्ति या वेश का नहीं, इसलिए. श्री पंचपरमेष्ठियों की वीतरागीवाणी और वीतरागीधर्म के अलावा और किसी को नमन नहीं करना चाहिए, क्योंकि पंचपरमेष्ठी और उनकी वाणी के अतिरिक्त सभी धर्म के लुटेरे हैं और मिथ्यात्व के पोषक हैं, अनन्त दुःखों के कारण हैं।
सच्चे देव-शास्त्र-गुरु, सात तत्त्व, हितकारी-अहितकारी भाव, स्व-पर इत्यादि मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत तत्त्व हैं, उनके सम्बन्ध में विपरीत मान्यता को मिथ्यात्व कहते हैं। इस विपरीत अभिप्राय के वश होकर यह प्राणी अनन्त काल से चौरासी लाख योनियों में भ्रमता हुआ अनन्त दुःख उठाता आ रहा है। निगोदादि पर्यायों से निकलकर महादुर्लभ यह त्रस पर्याय को प्राप्त करता है, उसमें भी संज्ञी पंचेन्द्रिय, मनुष्यपर्याय, श्रावककुल, सत्यधर्म का पाना अतिदुर्लभ है, यदि ये भी मिल गये तो सत्संगति और सत्यधर्म को ग्रहण करने की बुद्धि का मिलना अत्यन्त
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ दुर्लभ है। सत्यधर्म को अवधारण करने के लिये कषायों की मंदता होना महादुर्लभ है। __ हे भव्योत्तम ! इतनी दुर्लभता तो तू महाभाग्य से पार कर चुका है। इसलिऐ सच्चे देव-शास्त्र-गुरुओं के उपदेश से तू अब मिथ्या मान्यताओं को तजकर वस्तु स्वरूप को ग्रहण कर, यह धर्म ही संसार सागर से पार उतारने वाला सच्चा यान/जहाज है।
श्रीगुरु का उपदेशामृत पानकर महाराजा बालि का मन-मयूर प्रसन्न हो गया। अहो ! इस परम हितकारी शिक्षा को मैं आज ही अंगीकार करूँगा। अतः बालि अपनी भावनाओं को साकार करने हेतु तत्काल ही श्रीगुरुचरणों में अंजुली जोड़कर नमस्कार करते हुए बोले-हे प्रभोमुझे यह हितकारी व्रत प्रदान कर अनुगृहीत कीजिये।
हे भवभयभीरू नृपेश ! तुम्हारी भली होनहार है अतः आज तुम पंचपरमेष्ठी, जिनवाणी, प्रजाजनों की एवं आत्मा की साक्षीपूर्वक यह
प्रतिज्ञा अंगीकार करो कि “मैं पंचपरमेष्ठी भगवंतों को, जिनवाणी माता को और वीतरागी जिनधर्म के अलावा किसी को भी नमन नहीं करूँगा।"
राजा हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए बोले"प्रभो ! आपके द्वारा प्रदत्त हितकारी व्रत को मैं यम रूप से अंगीकार करता हूँ।" पश्चात् गुरु-वन्दना एवं
16 हितका
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ स्तुति करके राजा अपने साधर्मियों व नगरवासियों सहित अपने गृह को लौट आये। कुछ दिनों के बाद पूज्य गुरुवर आहार-चर्या हेतु नगर में पधारे और पड़गाहन हेतु महाराजा बालि एवं नगरवासी अपने-अपने द्वार पर खड़े थे, उनका भाग्य चमक उठा और उन्हें महापात्र गुरुवरों के आहार दान का लाभ प्राप्त हो गया। नवधा भक्तिपूर्वक मुक्ति साधक श्रीगुरुओं
को दाताओं ने भक्तिपूर्वक आहार दान देकर अपूर्व पुण्य का संचय किया। पश्चात् गुरु महिमा गाते हुए उत्सव मनाते हुए गुरुवरों के साथ वन-जंगल तक गये। पश्चात् सभी अपने-अपने घर को आकर अपने नित्य-नैमित्तिक कार्यों को करते हुए भी उनके हृदय में तो गुरुराज ही बस रहे हैं, यही कारण है कि उन्हें चलते-फिरते, खाते-पीते अर्थात् प्रत्येक कार्य में गुरु ही गुरु दिख रहे हैं।
इधर महाराजा बालि की प्रतिज्ञा के समाचार जब लंकापुरी नरेश रावण ने सुने तब उसे ऐसा लगा कि मुझे नमस्कार नहीं करने की इच्छा से ही बालि ने यह प्रतिज्ञा ली है, अन्यथा और कोई कारण नहीं है। मैं अभी इसको प्रतिज्ञा लेने का मजा चखाता हूँ।
लंकेश ने शीघ्र ही एक शास्त्रज्ञ विद्वान दूत को बुलवाया और आज्ञा दी- हे कुशाग्रमते ! आप शीघ्र ही किष्किंधापुरी जाकर बालि नरेश को सूचित करो कि आप अपनी बहन श्रीमाला हमें देकर एवं नमस्कार कर सुख से अपना राज्य करें।
विद्वान् दूत राजाज्ञा शिरोधार्य कर शीघ्र ही किष्किंधापुरी पहुँचा, उसने राजा बालि के मंत्री से कहा - आप अपने राजा साहब को संदेश भेज दीजिये कि लंका नरेश का दूत आप से मिलना चाहता है।
मंत्री ने राजा के पास जाकर निवेदन किया - हे राजन् ! लंकेश का दूत आपसे मिलने के लिये आया है, आपकी आज्ञा चाहता है। राजा ने दूत को ले आने की स्वीकृति दे दी।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
राजाज्ञा पाकर मंत्री शीघ्र ही दूत को महाराजा बालि के समक्ष ले आये। राजा को नमस्कार करते हुए दूत ने लंका नरेश का सन्देश इसप्रकार कहा - "हे राजन् ! जगत विजयी राजा दशानन का कहना है कि आप और हमारे बीच परम्परा से स्नेह का व्यवहार चला आ रहा है, उसका निर्वाह आप को भी करना चाहिए तथा आपके पिताजी
को हमने सूर्य के शत्रु अत्यन्त प्रचण्ड राजा को जीतकर उसका राज्य आपको दिया था, अतः उस उपकार का स्मरण करके आप अपनी बहन श्रीमाला लंकाधिपति को देकर उन्हें नमस्कार करें और फिर अपना राज्य सुख
३पूर्वक करते रहें।"
। हे राजदूत ! राजा दशानन का उपकार मेरे हृदय में अच्छी तरह से प्रतिष्ठित है, उसके फलस्वरूप मैं अपनी बहन श्रीमाला को ससम्मान राजा को समर्पित करने को तैयार हूँ, मगर आपके राजा को नमस्कार नहीं करूंगा। __हेराजन् ! नमस्कार न करने से आपका बहुत अपकार होगा। उपकारी
का उपकार न मानने वाला जगत में कृतघ्नी कहलाता है। नमस्कार न करने का क्या कारण है राजन् !
हे कुशलबुद्धे ! इतना तो आप जानते ही होंगे कि जिनधर्म में कोई पद पूज्य नहीं होता, कोई व्यक्ति या जाति पूज्य नहीं होती, जिनधर्म तो गुणों तथा सम्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्र का उपासक होता है और आपके
PISODORE
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ राजन् अविरति हैं। मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं पंच परमेष्ठी के अलावा और किसी को नमस्कार नहीं करता।
हे राजन् ! लोक व्यवहार में धर्म नही देखा जाता हैं, व्यर्थ में ही कषाय बढ़ाने से क्या फायदा है ?
हे दूत ! जो होना होगा वह होगा, मैं प्रतिज्ञा से बढ़कर लोक व्यवहार को नहीं मानता। आप अपने स्थान को पधारिये।
विद्वानदूत शीघ्र ही किष्किंधापुरी से प्रस्थान करके कुछ ही दिनों में लंकापुरी पहुँच गया। राजा साहब के पास पहुँचकर निवेदन किया - हे महाराज! आपके सब उपकारों का उपकार मानते हुए बालि महाराजा आपको अपनी बहन को सहर्ष देने को तैयार हैं, परन्तु नमस्कार करने को तैयार नहीं हैं।
हे दूत ! नमस्कार न करने का क्या कारण है ?
हे राजन् ! महाराजा बालि ने श्रीगुरु के पास पंच परमेष्ठी के अलावा किसी और को नमस्कार न करने की प्रतिज्ञा अंगीकार की है। धार्मिक प्रतिज्ञा के सामने कुछ भी कहना मुझे उचित नहीं लगा।
बस फिर क्या था, लंकेश तो भुजंग के समान कुपित हो उठे, तब रावण के मंत्रीगण एकदम गम्भीर हो गये। कुछ देर विचार करने के बाद मंत्रीगणों ने राजा साहब से निवेदन किया -
हे प्राणाधार ! आप भी धार्मिक व्यक्ति हो, पूजा-पाठ, दया-दान, व्रत आदि करते हो, प्रतिदिन जिनवाणी का स्वाध्याय करते हो, अतः इतना तो आप भी जानते हो कि श्रीगुरुओं से ली हुई प्रतिज्ञायें चाहे वह छोटी हों या बड़ी, उनका जीवनपर्यंत निर्दोष रूप से पालन करना चाहिए। प्राणों की कीमत पर भी व्रतभंग नहीं करना चाहिए। किसी की या अपनी प्रतिज्ञा को भंग करने में महापाप लगता है।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
18 ___ अतः हम लोगों की सलाह है कि बालि नरेश आपको अपनी बहन देने को तो तैयार ही हैं और जो अपनी बहन देगा तो आपका आदर सत्कार/साधुवाद तो करेगा ही करेगा, मात्र मस्तक झुकाना ही नमस्कार नहीं है। अपने हृदय में किसी को स्थान देगा, आदर देना भी तो नमस्कार ही है। और बालि नरेश के हृदय में आपके प्रति आदर तो है ही। अतः आप हम लोगों की बात पर गम्भीरता से विचार कीजिये, एकदम क्रोध में आ जाना राज्य के हित में नहीं होता राजन्।
भैंस के सामने बीन बजाना, मूर्ख को शिक्षा देना तथा सर्प को दूध पिलाना जैसे व्यर्थ है। वैसे ही मंत्रियों की योग्य सलाह भी लंकेश पर. कुछ असर नहीं कर सकी, आखिर क्रोध के पास विवेक रहा ही कब है जो कुछ असर हो, वह तो सदा अन्धा ही होता है, सदा असुर बनकर भभकना उसकी प्रकृति ही है। जब विनाश का समय आता है तब बुद्धि भी विपरीत हो जाती है। अंततोगत्वा रावण ने साम, दाम, दण्ड और भेद सभी प्रकार से किष्किंधापुरी को घेर लिया।
किष्किंधापुरी के घिर जाने के समाचार जब राजा बालि ने सुने, तब वे भी युद्ध के लिये तैयार हो गये। तब बालि राजा के मंत्रियों ने बहुत समझाया। महाराज ! आपके वे उपकारी हैं। आपके पास इतनी सेना भी नहीं है। इतने अस्त्र-शस्त्र भी नहीं हैं। रावण तो चार अक्षोहणी सेना का अधिपति है, उसके सामने अपनी सेना क्या है ? उपकारियों का अपकार करने वाला राजा लोक में कृतघ्नी गिनाया जाता है, इसलिए हे राजन् ! हम लोगों की बात पर आप गम्भीरता से विचार कीजिए।
कितना भी विवेकी राजा क्यों न हो, परन्तु जब कोई अन्य राजा उसे युद्धस्थल पर ललकार रहा हो तब सामने वाला शान्त नहीं बैठ सकता, यह उसकी भूमिकागत कषायों का प्रताप होता है। अतः महाराजा बालि ने भी मंत्रियों की एक भी न सुनी और अपनी सम्पूर्ण सेना सहित दशानन का सामना करने को युद्धस्थल में आ गया।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
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दोनों ओर की सेना ज्यों ही युद्ध के लिये तैयार हुई कि दोनों ओर से मंत्रियों ने उन्हें विराम का संकेत किया और विचार किया कि लंकेश प्रतिवासुदेव हैं और महाराजा बालि चरम शरीरी हैं, अतः मृत्यु तो दोनों की असम्भव है. फिर व्यर्थ में सैन्य शक्ति का विनाश क्यों हो ? अनेक
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मातायें - बहनें विधवा क्यों हों ? निर्दोष बालक अनाथ क्यों हों ? उन्हें
रोटियों के टुकड़ों की भीख
क्यों मँगवायें ? श्रेष्ठ तो यही
है कि दोनों राजा ही आपस में युद्ध करके फैसला कर लें ।
तब दोनों के मंत्रियों ने अपने-अपने राजाओं से निवेदन किया - हे राजन् ! आप दोनों ही मृत्युंजय हो,
तब आप दोनों ही युद्ध का कुछ हल निकाल लें तो उचित होगा, सेना का व्यर्थ में संहार क्यों हो ? यदि आप चाहें तो सैनिक युद्ध को टालकर दोनों ही राज्यों की सैन्यशक्ति तथा उस पर होने वाले कोष की हानि से बचा जा सकता है।
मंत्रियों की बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह दोनों ही राजाओं को उचित प्रतीत हुई, अतः दोनों ही राजा युद्धस्थल में उतर पड़े। कुछ ही समयों में दोनों के बीच घमासान युद्ध छिड़ गया ।
सम्पूर्ण सेना में कुछ विचित्र प्रकार का उद्वेग हो उठा, वे कुछ कर भी नहीं सकते थे और चुपचाप बैठा भी नहीं जा रहा था । होनहार के अनुसार ही दोनों के अन्दर विचारों ने जन्म लिया । मोक्षगानी महाराजा बालि का तो वैराग्य वृद्धिंगत होने लगा और नरकगामी रावण का प्रतिसमय क्रोधासुर वृद्धिंगत होने लगा। अहो ! महाराजा बालि तो चरमशरीरी थे
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ ही, अतः उनके अतुल बल का तो कहना ही क्या था, दशानन को बन्दी बनाना उनके लिये चुटकियों का खेल था। ___अरे अर्द्धचक्री, चार अक्षोहणी सेना का अधिपति क्षणमात्र में बन्दी बना लिया गया। कोई शरणदाता नहीं होने पर भी अज्ञानी जीव परद्रव्य को ही अपना शरणदाता मानकर दुःख के समुद्र में जा गिरता है। इस लोक में जहाँ-तहाँ जो हार नजर आती है, वह सब संसार शिरोमणि मिथ्यात्व बादशाह एवं उसकी सेना कषाय का ही प्रताप है। धन-सम्पति, अस्त्र-शस्त्र, हाथी-घोड़े, रथ-प्यादे एवं सेना की हीनाधिकता हारजीत का कारण नहीं है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद है।
निकट भव्यजीव के लिए युद्ध के अथवा युद्ध में विजय के नगाड़े संसार-देह-भोगों से विरक्ति/वैराग्य का कारण बन जाते हैं। स्वभाव अक्षयनिधि से भरपूर शाश्वत पवित्र तत्त्व है और जड़ सम्पदा क्षणभंगुर एवं अशुचि है। __ जिनागम में पार्श्वनाथ और कमठ के, सुकमाल और श्यालनी के, सुकौशल और सिंहनी के, गजकुमार और सोमिल सेठ के इत्यादि अनेक उदाहरणों से प्रसिद्ध है कि वैराग्य की सदा जीत होती है और मिथ्यात्वकषाय की सदा हार होती है, मोह-राग-द्वेष के वशीभूत होकर चक्रवर्ती भी नरक में गये और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना करने वाले सिंह और हाथी भी मुक्तिपथ में विचरण करके मुक्ति को प्राप्त हुए।
बन्दी बने रावण को अन्दर ही अन्दर कषाय प्रज्ज्वलित होती जा रही है, उसके हृदय को वैरागी बालि महाराज ने पढ़ लिया था, अतः परम करुणावंत महाराजा बालि ने रावण को बंधन मुक्त करते हुए क्षमा किया और अपने भाई सुग्रीव का राज्य तिलक करके उसे रावणाधीन करके स्वयं ने वन की ओर प्रस्थान किया; क्योंकि उन्हें तो अब चैतन्य की परमशान्ति की ललक जाग उठी थी, वे तो अपने अतीन्द्रिय आनन्द
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ रस को पीने के लिए ही आतुर थे। अब राज्य का राग ही अस्त हो गया था तो राज्य करे कौन ? वैरागी चरमशरीरियों का निर्णय अफरगामी होता है, जो कभी फिरता नहीं है।
न्याय नीतिवंत, धर्मज्ञ राजा के राज्य में प्रजा सदा सुखी रहती थी - ऐसे राजा का वियोग, अरे रे !....हाहाकार मच गया, प्रजा के लिए तो मानों उनका वियोग असहनीय ही हो गया हो। अतः प्रजा अपने प्राणनाथ के पीछे-पीछे दौड़ी जा रही है, कोई उनके चरणों को पकड़ कर विलाप करता है, तो कोई उन्हें जिनेश्वरी दीक्षा लेने से रोकता हुआ कहता है। “हे राजन् ! हम आपकी साधना में अन्तराय नहीं डालना चाहते; परन्तु इतना निवेदन अवश्य है कि आप अपनी साधना महल के उद्यान में रहकर ही कीजिए, जिससे हम सभी को भी आराधना की प्रेरणा मिलती रहेगी, हमारे हित में आप उपकारी बने रहें - ऐसी हमारी भावना है। आपके बिना हम प्राण रहित हो जायेंगे। हे राजन् ! हमारी इतनी-सी विनती पर ध्यान दीजिये।" ___ मुक्ति-सुन्दरी के अभिलाषी को रोकने में भला कौन समर्थ हो सकता है ? निज ज्ञायक प्रभु के आश्रय से उदित हुए वैराग्य को कोई प्रतिबन्धित नहीं कर सकता। चरम शरीरियों का पुरुषार्थ अप्रतिहत भाव से चलता है, जो शाश्वत आनन्द को प्राप्त करके ही रहता है। शीघ्रता से बढ़ते हुए महाराजा बालि कुछ ही समय में श्रीगुरु के चरणों की शरण में पहुँच गये। गुरु-पद-पंकजों को नमन कर अंजुली जोड़कर इसप्रकार विनती करने लगे। “हे प्रभो! मेरा मन अब आत्मिक अतीन्दिय आनन्द का सतत आस्वादन करने को ललक उठा है। ये सांसारिक भोग विलास, राग-रंग मुझे स्वप्न में भी नहीं रुचते हैं। ये ऊँचे-ऊँचे महल अटारियाँ श्मशान की राख समान प्रतिभासित होते हैं, अतः हे नाथ! मुझे पारमेश्वरी दिगम्बर-दीक्षा देकर अनुगृहीत कीजिए।"
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
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श्री गुरु द्वारा मुनिदीक्षा
जिस तरह फूल की खुशबू, चन्द्रमा की शीतलता, वसंत ऋतु की छटा, सज्जनों की सज्जनता, शूरवीरों का पराक्रम छिपा नहीं रहता । JOYTTVA उसी प्रकार भव्यों की भव्यता, वैरागी की उदासीनता छिपी नहीं रहती । पूज्य गुरुवर ने अपनी कुशल प्रज्ञा से शीघ्र मुक्ति सम्पदा के अधिकारी महाराजा बालि की पात्रता को परख लिया । जाति, कुल, देश आदि की अपेक्षा भी जनदीक्षा के योग्य हैं। इस प्रकार पात्र जानकर श्रीगुरु ने जिनागमानुसार प्रथम क्षेत्र, वास्तु आदि १० प्रकार के बहिरंग परिग्रह का त्याग कराया । पश्चात् बालि केशों
का लोंच कर, देह के प्रति पूर्ण निर्मोही हो गये।
मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबंधी चार कषायों का त्याग तो पहले ही कर चुके थे; इसके उपरान्त वे अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान कषाय चौकड़ी एवं नव नोकषाय आदि शेष अन्तरंग परिग्रहों को त्याग कर स्वरूपमग्न हो गये। इस तरह श्रीगुरु ने विधिपूर्वक जिनेश्वरी दिगम्बरी दीक्षा प्रदान कर अनुगृहीत किया और श्री किष्कंधापुरी नरेश बालि राजा दीक्षा अंगीकार कर बालि मुनिराज बनकर परमेश्वर बनने के लिये शीघ्रातिशीघ्र प्रयाण करने लगे। क्षण-क्षण में अन्तर्मुख हो अतीन्द्रिय आनन्द की गटागट
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ घुटें पीते हुए सिद्धों से बातें करने लगे। अहो ! जमे जमाये ध्रुवधाम में अब गुरुवर की परिणति मंथर हो गई। चैतन्यामृत भोजी गुरुवर अब सादि अनन्त काल के लिये परिग्रह रहित हो यथाजातरूपधारी (नवजात बालक की भाँति अन्तर-बाह्य निर्विकार नग्नरूप) बन गये। पंच महाव्रत, पंच समिति, पंच इन्द्रियविजय, षट्-आवश्यक एवं सात शेष गुण – कुल २८ मूलगुणों को निरतिचार रूप से पालन करते हुए रत्नत्रयमयी जीवन जीने लगे।
नवीन राजा सुग्रीव ने माता-पिता, रानियों एवं प्रजाजनों के साथ महाराजा बालि की दीक्षा समारोह हर्ष पूर्वक मनाया तथा भावना भाई कि हे गुरुवर ! इस दशा की मंगल घड़ी हमें भी शीघ्र प्राप्त हो, हम सभी भी निजानन्द बिहारी होकर आपके पदचिन्हों पर चलें। ___ पूज्य श्री मुनिपुंगव गुरुपदपंकजों की शरण ग्रहण कर जिनागम का अभ्यास करने में तत्पर हो गये। अतः पूज्य श्री बालि मुनिराज अल्पकाल में ही सम्पूर्ण आगम के पाठी हो गये। ___जब कभी गुरुवर आहार चर्या को निकलते तो जिन ४६ दोषों और ३२ अंतरायों को टालते हुए आहार ग्रहण करते, वे क्रमशः इसप्रकार हैं- भोजन की शुद्धता अष्ट दोषों से रहित है - उद्गम, उत्पादन, एषण, संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम, कारण। इनमें उद्म दोष १६ प्रकार का है जो गृहस्थों के आश्रित है जिनके नाम हैं - उद्दिष्ट, अध्यवनि, पूति, मिश्र, स्थापित, बलि, प्राभृत, प्राविष्कृत, क्रीत, प्रामृष्य, परावर्त, अभिहत, उद्भिन्न, मालिकारोहण, आछेद्य, अनिसृष्ट ये १६ दोष हैं। मुनिमार्ग को जानने वाला गृहस्थ ऐसे दोष लगाकर मुनिराज को आहार नहीं देता है और यदि इन दोषों का ज्ञान मुनिराज को हो जावे तो वे भोजन में अन्तराय मानकर वापिस वन को चले जाते हैं।
अधःकर्म - आहार बनाने में छह काय के जीवों का प्राण घात
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ हो वह आरम्भ है। षट्काय के जीवों का उपद्रव करना उपद्रवण है। षट्काय के जीवों का छेदन हो जाना विद्रावण है और षट्काय के जीवों को संताप देना वह परितापन है। इसप्रकार षट्काय के जीवों को आरम्भ, उपद्रवण, विद्रावण और परितापन देकर जो आहार स्वयं करे, अन्य से करावे और करते हुए को भला जाने; मन से, वचन से और काया से इसप्रकार नव-प्रकार के दोषों से बनाया गया भोजन अधःकर्म दोष से दूषित है, उसे संयमी दूर से ही त्याग देते हैं। ऐसा आहार जो करते हैं वे मुनि नहीं गृहस्थ हैं। यह अधःकर्म नामक दोष छियालीस दोषों से भिन्न महादोष है।
प्रश्न - मुनिराज तो अपने हाथ से भोजन बनाते नहीं हैं तो फिर ऐसा दोष इन्हें क्यों कहा?
उत्तर - कहे बिना मंदज्ञानी कैसे जाने ? जगत में अन्यमत के वेशी स्वयं करते भी हैं और कराते भी हैं और जिनमत में भी अनेक वेशी स्वयं करते हैं और कहकर कराते भी हैं, इसलिये इसको महादोष जानकर त्याग करना। अधःकर्म से बनाया हुआ भोजन लेने वाले को भ्रष्ट जानकर धर्म मार्ग में अंगीकार नहीं करना - ऐसा भगवान के परमागम का उपदेश है। (भ.आ.पृ. १०२) ____धात्री दोष, दूत, विषग्वृत्ति, निमित्त, इच्छविभाषण, पूर्वस्तुति, पश्चात्स्तुति, क्रोध, मान, माया, लोभ, वश्यकर्म, स्वगुणस्तवन, विद्योत्पादन, मंत्रोपजीवन, चूर्णोपजीवन। इन सोलह उत्पादन दोषों से युक्त जो भोजन करता है उसका साधुपना बिगड़ जाता है।
- अब एषणा नामक भोजन के दश दोष - शंकित, म्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, व्यवहरण, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और परित्यजन। इसप्रकार मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से इन दोषों का त्याग करके तथा उद्गम, उत्पादन, एषणा के बियालीस भेद रूप दोष
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ से रहित तथा संयोजना रहित, प्रमाण सहित अंगार तथा धूमदोष रहित भोजन करते हैं। __ नवधा भक्ति से युक्त दातार के सात गुण सहित श्री मुनिराज आहार लेते हैं। १. प्रतिग्रह, २. उच्चस्थान, ३. चरण प्रक्षालन, ४. अर्चना, ५. नमस्कार, ६. मनशुद्धि, ७. वचनशुद्धि, ८. कायशद्धि, ९. आहार शुद्धि
- यह नवधा भक्ति है। - १. दान देने में, जिसके धर्म का श्रद्धान हो २. साधु के रत्नत्रय आदि गुणों में भक्ति हो ३. दान देने में आनन्द हो ४. दान की शुद्धता-अशुद्धता का ज्ञान हो ५. दान देकर इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगों की अभिलाषा न हो ६. क्षमावान हो ७. शक्ति युक्त हो- ये दाता के सप्त गुण हैं।
बत्तीस अन्तराय - काक-अंतराय, अमेद्य, छर्दि, रोधन, रुधिर, अश्रुपात, जान्वधः परामर्श, जानूपरिव्यतिक्रम, नाभ्यधोनिर्गमन, स्वप्रत्याख्यातसेवन, जीववध, काकादिपिण्डहरण, पिण्डपतन, पाणिजंतुवध, मांसदर्शन, उपसर्ग, पंचेन्द्रियगमन, भाजनसंपात, उच्चार, प्रस्त्रवण, भिखापरिभ्रमण, अभोज्यगेहप्रवेश, पतन, उपवेशन, दष्ट, भूमिस्पर्श, निष्ठीवन, कृमिनिर्गमन, अदत्त, शस्त्र प्रहार, ग्रामदाह, पादग्रहण और हस्तग्रहण इनके अलावा और भी चांडालादि स्पर्श, इष्टमरण, प्रधान पुरुषों का मरण इत्यादि अनेक कारणों की उपस्थिति होने पर इन्हें टालकर आचारांग की आज्ञाप्रमाण शुद्धता सहित ही पूज्य बालि मुनिराज आहार ग्रहण करते। __अहो ! अनाहारीपद के साधक मुनिकुंजर क्षण-क्षण में अन्तर्मुख हो आनन्दामृत-भोजी अति-शीघ्रता से अशरीरीदशामय शाश्वतपुरी के लिये अग्रसर होते जाते हैं।
श्री गुरुराज ने देखा कि ये बालिमुनि तो असाधारण प्रज्ञा के धनी
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हैं । विनय तो रोम-रोम में समाई हुई है, विनय की अतिशयता है । मति, श्रुत, अवधिज्ञान के धारी हैं और वज्रवृषभनाराचसंहनन के भी धारी हैं। मनोबल तो इनका मेरू के समान अचल है। देव, मनुष्य, तिर्यंच घोर उपसर्ग करके भी इन्हें चलायमान नहीं कर सकते आत्मभावना और द्वादशभावना को निरन्तर भाने के कारण कभी भी आर्त- रौद्र परिणति को प्राप्त नहीं होते और बहुत काल के दीक्षित भी हैं । मेरे (श्रीगुरु ) निकट रहकर निरतिचार चारित्र का सेवन भी करते हैं। क्षुधादि बाईस परीषहों पर जयकरण शील भी हैं। दीक्षा, शिक्षा एवं प्रायश्चित विधि में भी कुशल हैं। धीर-वीर गुण गंभीर. हैं । - ऐसे सर्वगुण सम्पन्न गणधर तुल्य विवेक के धनी बालि मुनिराज को श्रीगुरु ने एकलविहारी रहने की आज्ञा दे दी।
श्री गुरु की बारम्बार आज्ञा पाकर श्री बालिमुनिराज अनेक वनउपवनों में विहार करते हुए अनेक जिनालयों की वन्दना करते हैं। अनेक जगह अनेक आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर ये पंच प्रधानपुरुषों के संघ को प्राप्त किया। जिससे उनके गुणों में दृढ़ता वृद्धिंगत हुई, ज्ञान की निर्मलता हुई, चारित्र की परिशुद्धि हुई। कभी कहीं धर्मलोभी भव्यों को धर्मोपदेश देकर उनके भवसंताप का हरण किया।
आ हा हा ! ध्यान- ज्ञान तो उनका जीवन ही है। निश्चल स्थिरता के लिये कभी माह, कभी दो माह का उपवास करके गिरिशिखर पर आतापन योग धारण कर लेते, तो कभी आहार चर्या हेतु नगर में पधारते, कभी आहार का योग बन जाता तो कभी नहीं भी बनता; पर समतामूर्ति गुरुवर वन में जाकर पुनः ध्यानारूढ़ हो जाते, अतीन्द्रिय आनन्द का रसास्वादन करते हुए सिद्धों से बातें करते । इसप्रकार विहार करते हुए धर्म का डंका बजाते हुए अब गुरुवर श्री आदिप्रभु के सिद्धि-धाम कैलाश श्रृंगराज पर पहुँचे, वहाँ के सभी जिनालयों की वंदना कर पर्वत की गुफा जा विराजमान हुए और स्वरूपगुप्त हो गये।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
___27 अब थोड़ा दशानन/लंकेशनृप की दशा का भी अवलोकन करते हैं। राजाओं की तो स्वाभाविक प्रकृति ही ऐसी होती है कि नव निधानों में से जहाँ जो निधान दिखा कि बस “यह तो मुझे ही मिलना चाहिए" क्योंकि मैं राजा हूँ और सब निधानों का स्वामी तो राजा ही होता है।
एक बार दशानन सज-धज के रत्नावली नाम की कन्या के विवाह के लिये विमान में अपनी पटरानी मंदोदरी आदि रानियों के साथ बैठा हुआ आकाशमार्ग से जा रहा था, जब उसका विमान कैलाशपर्वत पर, जहाँ श्री बालि मुनिराज तपस्या कर रहे थे, वहाँ पहुँचा तब अचानक वह अटक गया। बहुत उपाय करने पर भी विमान आगे नहीं चला, लंकेश विचारने लगा इसका क्या कारण है ? चारों ओर देखने पर भी कुछ कारण नजर नहीं आया। आता भी कैसे ? क्योंकि विवाह के राग में मतवाला हो जाने से उसे वह विवेक ही नहीं रहा कि जहाँ जिनालय होते हैं, जिनगुरु विराजते हैं उनके ऊपर से विमान तो क्या जगत के कोई भी वाहन गमन नहीं करते। __उसने ज्यों ही नीचे की ओर दृष्टि डाली तो उसे कुछ जिनालय एवं ध्यानस्थ मुनिराज दिखाई दिये, उसने अपना विमान नीचे उतारा; पर ज्यों ही उसकी नजर बालि मुनिराज पर पड़ी, बस फिर क्या था, उसके हृदय में क्रोध भड़क उठा उसने सोचा निश्चित इस बालि ने ही द्वेष से मेरा विमान अटकाया है; क्योंकि पूर्व बैर युक्त-बुद्धि में ऐसा ही सूझता है। स्व-पर विनाशक, दुर्गति का हेतु क्रोधासुर महापाप करने के लिए रावण को उत्तेजित करने लगा कि अब बालि मुनि हो गया है, बदले में यह कुछ कर तो सकता नहीं; अतः बदला लेने का अच्छा अवसर है।
अरे रे ! जिसे आगामी पर्याय नरक की ही बिताना है - ऐसे उस दुर्मति सम्पन्न दशानन ने आदिप्रभु का सिद्धिधाम कैलाशपर्वत सहित बालि मुनिराज को समुद्र में पटक देने का विचार किया और अपनी
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शक्ति एवं विद्या के बल से पर्वत को उखाड़ने लगा । उसका दुष्कृत देख महाविवेकी, धर्ममूर्ति बालि मुनिराज को यह विचार आया कि ये तीन चौबीसी के अगणित अनुपम भव्य जिनालय, अनेक गुणों के निधान मुनिराज अनेक स्थानों में आत्ममग्न विराजमान हैं इत्यादि - ये सभी नष्ट हो जायेंगे तथा इस पर्वत के निवासी लाखों जीव प्राणहीन हो जावेंगे। अनेक निर्दोष, मूक पशु इसके क्रोध के ग्रास बन जावेंगे। दशानन
सर्व विनाशकारी करतूत को रोकने के
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लिए श्री बालि मुनिराज ने अपनी कायबलऋद्धि का प्रयोग किया।
ओहि
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―
प्रश्न क्या
मुनिराज भी ऋद्धियों का प्रयोग करते हैं ?
उत्तर - मुनिराजों
को तो अपनी स्वरूप
आराधना से फुर्सत ही
नहीं है, परन्तु धर्म पर
आये संकट को दूर
करने के लिए उन्हें
अपनी ऋद्धियों का
प्रयोग कभी-कभी परहित में करना पड़ता है।
प्रश्न - जब उनके पास अस्त्र-शस्त्रादि कुछ भी नहीं होते, तब फिर उन्होंने उसका प्रयोग कैसे किया और वह प्रयोग भी क्या था ?
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
उत्तर-श्री मुनिराजों को निजात्म आराधना के कारण अनेक ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं।
जैसे -चारणऋद्धि, वचनऋद्धि, जलऋद्धि, कायऋक्रि आदि। श्री बालिमुनि को कायबल ऋद्धि थी। उन्होंने जिनालयों आदि की रक्षा के भाव से अपने बाँये पैर का अंगूठा नीचे को दबाया/मुनि वज्रवृषभनाराचसंहनन के धनी तो थे ही, एक अंगूठे को जरा-सा नीचे की ओर किया कि उसका बल भी दशानन को असह्य हो गया। उसके भार से दबकर वह निकलने में असमर्थ हो जाने से जोर-जोर से चिल्लाने लगा - मुझे बचाओ, मुझे बचाओ; उसकी करुण पुकार सुनकर विमान में बैठी हुई मंदोदरी आदि रानियाँ तत्काल पूज्य बालि मुनिराज के पास दौड़ी आईं और हाथ जोड़कर नमस्कार करती हुईं अपने पति के प्राणों की भिक्षा माँगने लगीं। हे प्रभु ! आप तो क्षमावंत, दयामूर्ति हो, हमारे पति का अपराध क्षमा कीजिए प्रभु ! क्षमा कीजिए। ___ परम दयालु मुनिराज ने अपना अंगूठा ढीला कर दिया, तब दशानन निकलकर बाहर आया। तब मुनिराज के तप के प्रभाव से देवों के आसान कम्पायमान होने लगे। तब देवों ने अवधिज्ञान से आसन कम्पित होने का कारण जाना। अहो मुनिराज ! आप धन्य हो, आपका तप महान है। इसप्रकार कहते हुए सभी ने अपने आसनों से उतर कर परोक्ष नमस्कार किया और तत्काल सभी ने कैलाश पर्वत पर आकर पंचाश्चर्य बरसाये! एवं श्रीगुरु को नमस्कार किया। पश्चात् दशानन का “रोतिति रावणः" अर्थात् रोया इसलिए रावण नाम रखकर देव अपने-अपने स्थानों को चले गये।
श्री बालि मुनिराज की तपश्चर्या का प्रभाव देखकर रावण भी आश्चर्य में पड़ गया। वह मन ही मन बहुत पछताया, अरे बारम्बार अपराध करने वाला मैं कितना अधर्मी हूँ और ये बालिदेव सदा निरपराधी होने पर भी
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ मैं इन्हें कष्ट देता ही जा रहा हूँ। धन्य है इनकी क्षमा, इस प्रकार विचार करके रावण श्री मुनिराज को नमस्कार करता हुआ अपने अपराधों की क्षमा-याचना करने लगा। ___ श्रीगुरु ने रावण को भी “सद्धर्मवृद्धिरस्तु" कहकर वह भी दुःखों से मुक्त हो ऐसा अभिप्राय व्यक्त किया। वीतरागी संतों का जगत में कोई शत्रु-मित्र नहीं है। अरि-मित्र महल-मशान, कंचन-काच निन्दन-थुति करन। अर्घावतारण असिप्रहारण, में सदा समता धरन ॥ . ___ श्री गुरु से धर्मलाभ का आशीर्वाद प्राप्त कर रावण अपने विमान में बैठकर अपने इच्छित स्थान को चला गया। ____ अनेक वन-उपवनों में विहार करते हुए भावी सिद्ध भगवान अनन्तसिद्धों के सिद्धिधाम कैलाशपर्वत पर तो कुछ समय से विराजमान थे ही, वह पावन भूमि पुनः गुरुवर के चरण स्पर्श से पावन हो गयी। दो तीर्थों का मिलन – एक भावतीर्थ और दूसरा स्थापनातीर्थ, एक चेतनतीर्थ और दूसरा अचेतनतीर्थ। हमें ऐसा लगता होगा कि क्या भावी भगवान तीर्थयात्रा हेतु आये होंगे, अरे ! गुरुवर तो स्वयं रत्नत्रयरूप परिणमित जीवन्ततीर्थ हैं।
पूज्य गुरुवर ध्यानस्थ हैं....अहा, ऐसे वीतरागी महात्मा मेरे शीष पर पधारे !.... इस प्रकार हर्षित होता हुआ मानों वह पर्वत अपने को गौरवशाली मानने लगा। श्रृंगराज अभी तक यही समझता था कि इस लोक में मैं ही एक अचल हूँ, परन्तु अपने से अनन्तगुणे अचल महात्मा को देखकर वह भी आश्चर्यचकित रह गया, मानों वह सोच रहा हो कि दशानन की शक्ति एवं विद्या ने मुझे तो हिला दिया, लेकिन ये गुरु कितने अकम्प हैं कि जिनके बल से मैं भी अकम्प रह सका। वृक्ष समूह सोचता है कि क्या ग्रीष्म का ताप गुरुवर पर अपना प्रभाव नहीं डालता होगा?
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ इतनी गर्मी में भी ये गुरुवर हमारी शीतल पवन की भी अपेक्षा नहीं करते।
कितने दिनों से ये संत यहाँ विराजमान हैं, न किसी से कुछ बोलते, नचलते, न खाते, न पीते, न हिलते, बस ध्यानमग्न ही अकृत्रिमबिम्बवत् स्थित हैं। बालि मुनिराज का महाबलवानपना आज सचमुच जाग उठा है, क्षायिक सम्यक्त्व उनकी सेना का सेनापति है और अनन्तगुणों की विशुद्धिरूप सेना शुक्लध्यान द्वारा श्रेणीरूप बाणों की वर्षा कर रही है, अनन्त आत्मवीर्य उल्लसित हो रहा है, केवलज्ञान लक्ष्मी विजयमाला लेकर तैयार खड़ी है, इसी से मोह की समस्त सेना प्रतिक्षण घटती जा रही है। अरे, देखो....देखो ! प्रभु तो शुद्धोपयोग रूपी चक्र की तीक्ष्ण धार से मोह को अस्ताचल की राह दिखाने लगे। क्षपकश्रेणी में आरूढ़ हो अप्रतिहतभाव से आगे बढ़ते-बढ़ते आठवें....नौवें....दसवेंगुणस्थान में तो लीलामात्र में पहुँच गये। अहो ! अब शुद्धोपयोग की उत्कृष्ट छलांग लगाते ही मुनिराज पूर्ण वीतरागी हो गये, प्रभु हो गये।
अहा ! वीतरागता के अति प्रबलवेग को बर्दाश्त करने में असमर्थ ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय तो क्षणमात्र में भाग गये। अरे, वे तो तत्त्व विहीन हो ही गये। अब अनन्त कलाओं से केवलज्ञान सूर्य चमक उठा....अहा! अब नृपेश परमेश बन गये, संत भगवंत हो गये, अल्पज्ञ सर्वज्ञ हो गये, अब वे बालि मुनिराज अरहंत बन
ani गये. णमो अरहंताणं।'
इन्द्रराज की आज्ञा से तत्काल ही कुबेर ने गंधकुटी की रचना की, जिस पर प्रभु अन्तरीक्ष विराजमान हैं, शत इन्द्रों ने प्रभु को नमन कर केवलज्ञान की पूजा की।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ जामैं लोकालोक के सुभाव प्रतिभासे सब,
जगी ग्यान सकति विमल जैसी आरसी। दर्शन उद्योत लीयौ अंतराय अंत कीयौ,
गयौ महा मोह भयौ परम महारसी॥ संन्यासी सहज जोगी जोगसौं उदासी जामैं,
प्रकृति पचासी लगि रही जरि छारसी। सोहै घट मंदिर मैं चेतन प्रगट रूप,
ऐसे जिनराज ताहि बंदत बनारीस॥ अभी तो इन्द्रगण केवलज्ञानोत्सव मना ही रहे थे कि प्रभु तृतीय शुक्लध्यान से योग निरोध कर अयोगी गुणस्थान में पहुँच गये। चतुर्थ शुक्लध्यान से चार अघाति कर्मों का नाश कर पाँच स्वरों के उच्चारण जितने काल के बाद प्रभु अब शरीर रहित हो ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोकाग्र में पहुँच गये। ‘णमो सिद्धाणं।'
बिन कर्म, परम, विशुद्ध जन्म, जरा, मरण से हीन हैं। ज्ञानादि चार स्वभावमय, अक्षय, अछेद, अछीन हैं। निर्बाध, अनुपम अरु अतीन्द्रिय, पुण्य-पाप विहीन हैं। निश्चल, निरालम्बन, अमर, पुनरागमन से हीन हैं।
एक बार श्री सकलभूषण केवली से विभीषण ने विनयपूर्वक पूछा - हे भगवन् ! इसप्रकार के महाप्रभावशाली यह बालिदेव किस पुण्य के फल से उत्पन्न हुए हैं ? जगत को आश्चर्यचकित कर देने वाले प्रभाव का कुछ कारण तो अवश्य होगा। कृपया हमें इसका समाधान हो।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
उत्तर यह मिला कि इसी आर्यखण्ड में एक वृन्दारक नाम का वन है। उसमें एक मुनिवर आगम का पाठ किया करते थे और उसी वन में रहने वाला एक हिरण प्रतिदिन उसे सुना करता था। वह हिरण शुभ परिणामों से आयु पूर्ण कर उस पुण्य के फल से ऐरावत क्षेत्र के स्वच्छपुर नगर में विरहित नामक वणिक की शीलवती स्त्री के मेघरत्न नाम का पुत्र हुआ। वहाँ पर पुण्य प्रताप से सभी प्रकार के सांसारिक सुख भोगकर अणुव्रत धारण किये, उसके फलस्वरूप वहाँ से च्युत होकर ईशान स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ के पुण्योदय जन्य वैभव में वे लुभाये नहीं, वहाँ पर भी अपनी पूर्व की आराधना अखण्ड रूप से आराधते हुए दैवी सुख भोग कर देवायु पूर्ण कर पूर्वविदेह के कोकिलाग्राम में कांतशोक वणिक की रत्नाकिनी नामक स्त्री के सुप्रभ नाम का पुत्र हुआ। एक दिन उसे श्रीगुरु का सानिध्य प्राप्त हुआ, फिर क्या था भावना तो भा ही रहे थे कि “घर को छोड़ वन जाऊँ, मैं भी वह दिन कब पाऊँ।" गुरुराज से धर्म श्रवण कर तत्काल संसार, देह, भोगों से विरक्ति जाग उठी। फलस्वरूप उन्होंने पारमेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर ली और बहुत काल तक उग्र तपस्या करके सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग में गये और वहाँ से च्युत होकर यहाँयह चमत्कारी महाप्रभावशाली बालि के रूप उत्पन्न हुए।
ऐसा नहीं है कि उस होनहार हिरण ने श्रीगुरु के मुखारविंद से मात्र शब्द ही सुने हों, उसने भावों को भी समझ लिया, उसे अन्तरंग से जिनगुरु एवं जिनवाणी के प्रति बहुमान, भक्ति थी। उन संस्कारों का फल यह हुआ कि दूसरे ही भव में वह मनुष्य हुआ और अणुव्रत धारण कर मोक्षमार्गी बन गया, इतना ही नहीं उसने अपनी आराधना अविरल रूप से चालू रखी, उसी के फलस्वरूप पाँचवें भव में वह बालि राजा हुआ और इसी भव से साधनापूर्ण करके सिद्धत्व को प्राप्त किया। कहा भी है -
धन्य-धन्य है घड़ी आज की, जिनधुनि श्रवन परी। तत्त्व प्रतीति भई अबकों , मिथ्यादृष्टि टरी॥
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महारानी चेलना मंगलाचरण
करूँ नमन में अरिहंत देव को
पंचपरमेष्ठी प्रभु मेरे तुम इष्ट हो । करूँ नमन मैं सिद्ध भगवंत को
पंचपरमेष्ठी प्रभु मेरे तुम इष्ट हो । करूँ नमन मैं आचार्य देव को
पंचपरमेष्ठी प्रभु मेरे तुम इष्ट हो । करूँ नमन मैं उपाध्याय देव को
पंचपरमेष्ठी प्रभु मेरे तुम इष्ट हो ।
करूँ नमन मैं सर्व साधु देव को
पंचपरमेष्ठी प्रभु मेरे तुम इष्ट हो ।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
प्रथम दृश्य
(जैनधर्म के वियोग में दुःखी महारानी चेलना)
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(रंगमंच पर सूत्रधार का प्रवेश )
सूत्रधार - बोलिये, भगवान महावीर स्वामी की जय ! लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जब भगवान महावीर इस भारतभूमि में तीर्थंकर रूप में विचरते थे, उस समय का यह प्रसंग है। महारानी चेलना द्वारा जैनधर्म की जो महान प्रभावना हुई, वह यहाँ संवाद द्वारा दिखाई जा रही है। चेलना देवी भगवान महावीर की मौसी, सती चंदना की बहन, श्रेणिक राजा की महारानी, राजगृही के राजोद्यान में उदासचित्त बैठी हैं। वे क्या विचार कर रही हैं, यह आप उन्हीं के मुख से सुनिये ।
(चेलनादेवी विचार
मग्न उदासचित्त बैठी हैं । वह स्वयं स्वयं से ही कह रही हैं ।)
चेलना - अरे रे ! जैनधर्म की प्रभावना
बिना यहाँ बहुत सुन
यह
सान सा लग रहा है। यह राजवैभव .... राजमहल..... ये उपभोग
की
सामग्री... इनमें मुझे रंचमात्र भी चैन नहीं मिलता है। हे भगवान! हे वीतरागी जिनदेव !
-
नाटक के पात्र १. रानी चेलना २. राजा श्रेणिक ३. अभयकुमार ४. एकान्तमतावलम्बी गुरु ५. उनका शिष्य ६. दीवानजी ७. नगर सेठ ८. दो सैनिक ९. अभय मार की बहिन
१०. एक सखी ११. माली १२. दूती ।
आवश्यक सामग्री - कृत्रिम नाग, मुनिराज का स्टेच्यु या चित्र आदि ।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ ।
तुम्हारे दर्श बिन स्वामी ! मुझे नहिं चैन पड़ती है। छवि वैराग्य तेरी सामने आँखों के फिरती है।
(सखी का प्रवेश) चेलना- सखी ! अभयकुमार को बुलाओ। सखी- जी माता ! (सखी जाती है और अभयकुमार सहित लौट आती है।) अभय- माता प्रणाम ! (आश्चर्य से) आप बेचैन क्यों हो?
चेलना- (व्यथा से) पुत्र अभय ! कहाँ जैनधर्म की प्रभावना से भरपूर वैशाली नगरी और कहाँ यह राजगृही नगर ! यहाँ तो जहाँ देखो वहाँ एकान्त, एकान्त और एकान्त। जैनधर्म के अभाव में मुझे यहाँ कहीं भी चैन नहीं है। __ अभय-सत्य बात है, माता! अहो, वह देश धन्य है, जहाँ तीर्थंकर भगवान स्वयं विराज रहे हों। अरे रे ! यहाँ तो जिनेन्द्र भगवान के दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं।
चेलना- तुम सत्य कहते हो, पुत्र ! ना ही यहाँ कोई जिनमंदिर दिखते हैं और ना ही दिखते हैं कोई वीतरागी मुनिराज। हाय ! मैं ऐसे धर्महीन स्थान में कैसे आ गई ? . अभय-माता! अभी सारे भारत में बिहार, बंगाल, उज्जैन, गुजरात, मारवाड़, सौराष्ट्र आदि अनेक राज्यों में जैनधर्म की प्रभावना हो रही है, परन्तु अपने इस राज्य में जगह-जगह एकान्त धर्म का ही प्रचार एवं प्रभाव है।
नोट- अभयकुमार चेलना का पुत्र नहीं है, दूसरी रानी का पुत्र है, परन्तु धार्मिक स्नेह होने से दोनों में सगे माता-पुत्र जैसा ही प्रेम है। इस नाटक में भगवान महावीर की दीक्षा के समाचार का प्रंसग भी संवाद की अनुकूलता को लक्ष्य में रखकर आगे-पीछे रखा गया है। अतः इतिहासिज्ञ पुरुषों से हमारा निवेदन है कि वे इस बात को लक्ष्य में रखें।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ चेलना- हाँ, बेटा ! इसलिए ही मुझे यहाँ नहीं रुचता है।
जिनधर्मविनिर्मुक्तो मा भवेत्वक्रवर्त्यपि।
स्यात्चेटोऽपि दरिद्रोऽपिजिनधर्मानुवासितः॥ अभय-इसका अर्थ क्या है माता !
चेलना- सुनो ! इसका आशय है कि हे प्रभु ! जिनधर्म के बिना तो मुझे चक्रवर्ती पद भी नहीं चाहिए, भले ही जिनधर्म सहित दरिद्री हो जाऊँ, क्योंकि इस चक्र- वर्ती पद से तो वह दरिद्र सेवक अच्छा है, जो जैन धर्म के सानिध्य में वास करता हो। अभय- सत्य है, जैनधर्म के सिवाय अन्य कोई धर्म शरणरूप नहीं है।
चेलना- महाराज स्वयं भी एकान्तमत के अनुयायी हैं। इस राज्य में कहीं जैनधर्म के पालनकर्ता दिखते नहीं हैं। हे माता! हे पिता! आपने बाल्यकाल में जिनेन्द्रभक्ति के और तत्त्वज्ञान के जो पवित्र संस्कार हमको दिए हैं, मुझे वे ही अभी शरण रूप हैं।
अभय-माता! आपके पिता चेटक महाराज तो जैनधर्मी के सिवाय दूसरे किसी से अपनी पुत्री का ब्याह रचाते ही नहीं।
चेलना- पिताजी को तो अभी खबर ही नहीं होगी कि मैं कहाँ हूँ ? पिताजी ने जो जैनधर्म के संस्कार डाले हैं, उसके बल से अब तो मैं ही महाराज को जैन बनाऊँगी और अपने जैनधर्म की शोभा बढ़ाऊँगी। .. अभय- धन्य माता, आपके प्रताप से ऐसा ही हो। सारे राज्य में जैनधर्म की प्रभावना हो जाए।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
चेलना- पुत्र! वैशाली के कोई समाचार नहीं आए हैं। त्रिशलामाता के नन्दन वर्द्धमान कुमार क्या करते होंगे ? मेरी छोटी बहन चंदना क्या करती होगी ? अहो ! वह देश धन्य है, जहाँ तीर्थंकर भगवान स्वयं ही विराज रहे हों। अरे, वहाँ के कुशलक्षेम के समाचार सुनने मिलते तो कितना अच्छा रहता ? अभय- देखो माता ! दूर से कोई दूतो आ रही है।
(दूती का प्रवेश) चेलना - आओ बहन, आओ ! क्या हैं मेरे देश के समाचार ?
वहाँ चतुर्विध संघ तो कुशल है? वर्द्धमान कुमार अभी दीक्षित तो नहीं हो गये? मेरी छोटी बहन चंदना तो आनंद में है न ?
दूती- माता ! जैनधर्म के प्रताप से चतुर्विध संघ तो कुशल है? वर्द्धमान कुमार तो वैराग्य प्राप्त कर दीक्षित हो गये।
चेलना- हैं ! वर्द्धमान कुमार दीक्षित हो गये ? धन्य है उनका वैराग्य ! मेरी त्रिशला बहन महाभाग्यशाली है। अरेरे! भगवान के वैराग्य का प्रसंग हमें देखने को नहीं मिला।
अभय- आप चंदनबाला के समाचार तो भूल ही गईं।
दूती- (खेद से) माता ! मैं क्या कहूँ ? कुछ दिन पहले चंदना बहन और हम सब साथ में जंगल में खेलने गए थे, वहाँ चंदनबाला हमारे से अलग होकर अकेली ही मुनिराज की भक्ति करने लगी थी.....वहाँ कोई दुष्ट विद्याधर आकर चंदना को उठा ले गया।
चेलना- (आश्चर्य से) हैं, क्या मेरी बहन का अपहरण हो गया?
दूती- (द्रवित होकर) हाँ माता, बहुत दिनों से चारों तरफ सेनिक खोज में लगे हुए हैं, पर अभी तक कहीं पता नहीं लगा है।
चेलना- हा.....हो प्यारी बहन चंदना ! तुम कहाँ हो ?
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
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अभय- माता ! धैर्य रखो..... यही अपनी परीक्षा का समय है । चेलना - पुत्र ! अभी चारों तरफ की प्रतिकूलता में एक तेरा ही सहारा है।
अभय - आप दुःखी न हों ! आप तो अंतर के चैतन्यतत्त्व की जानकार हो, परम निशंकता, वात्सल्य और धर्मप्रभावना आदि गुणों
शोभायमान हो। इसलिए धैर्यपूर्वक अभी हम ऐसा कोई उपाय विचारें, जिससे सारे राज्य में जैनधर्म की प्रभावना का डंका बज जाए ।
चेलना - पुत्र ! क्या ऐसा कोई उपाय आपको सूझता है ?
अभय - हाँ माता ! देखो, महाराज की आपसे बहुत प्रीति है, इसलिए आप उनको किसी प्रकार से यह बात समझाओ कि एकान्तमत का एकान्त क्षणिकवाद मिथ्या है और अनेकान्त रूप जैनधर्म ही एकमात्र परम सत्य है। बस ! एक महाराज का हृदय परिवर्तित हो जाय तो हम बहुत कुछ कर सकते हैं।
चेलना- हाँ पुत्र ! तेरी बात सत्य है । मैं महाराज को समझाने का जरूर प्रयत्न करूँगी।
अभय- अच्छा माता, मैं जाता हूँ। (अभयकुमार चला जाता है।) द्वितीय दृश्य
जिनधर्म प्रभावना का अवसर
( चेलना विचारमग्न बैठी है। उसके पास एक सखी भी है ।) ( राजा श्रेणिक प्रवेश )
सखी - बहन ! श्रेणिक महाराज पधार रहे हैं ।
श्रेणिक- क्या विचार कर रही हो देवी ! तुम इतनी उदास क्यों रहती हो? अरे, इस उदासी का कारणा हमें बताओ? शायद हम आपकी कुछ मदद कर सकें।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
चेलना- महाराज ! आपकी इस राजगृही में मुझे कहीं चैन नहीं पड़ता।
श्रेणिक- (आश्चर्य से) अरे, यहाँ आपको क्या दुःख है ? यह राजपाट, यह महल, नौकर-चाकर सब आपके ही हैं। आप अपनी इच्छानुसार इनका उपभोग करो।
चेलना-राजन् ! मुझे जो सर्वाधिक प्रिय है, उस जैनधर्म के बिना इस राजपाट का मैं क्या करूँ ! संसार में जैनधर्म के सिवाय दूसरा कोई धर्म सत्य नहीं है। जैसे मुर्दे के ऊपर श्रृंगार नहीं शोभता, वैसे हे राजन् जैनधर्म बिना यह आपका राजपाट नहीं शोभता। जैनधर्म बिना यह महाराजा का पद व्यर्थ है। मुझे जैनधर्म सिवाय कुछ भी प्रिय नहीं है।
श्रेणिक-सुनो देवी ! आप जैनधर्म को ही उत्तम समझ रही हो, परन्तु भूल कर रही हो। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि जगत में एकान्तमत ही महाधर्म है। यह राजपाट, लक्ष्मी आदि मुझे एकान्तमत के प्रताप से ही मिली है।
चेलना-नहीं-नहीं राजन् ! जिनेन्द्र भगवान सर्वज्ञ हैं, उन सर्वज्ञ भगवान का कहा हुआ अनेकान्तमय जैनधर्म ही परम सत्य है। इसके सिवाय जगत में दूसरा कोई सत्य धर्म है ही नहीं। स्वामी ! यह राजपाट मिला, उससे आत्मा की कोई महत्ता नहीं, आपका एकान्तमत तो एकान्त क्षणिकवादी है एकान्ती गुरु सर्वज्ञता के अभिमान से दग्ध हैं। जबकि अरिहंतदेव के अतिरिक्त मोक्षमार्ग का प्रणेता इस जगत में कोई है ही नहीं। राजन् ! इस पावन जैनधर्म के अंगीकार करने से ही आपका कल्याण होगा। (अभयकुमार का प्रवेश)
श्रेणिक- देवी! यह चर्चा छोड़ो और इस राज्य में आप इच्छानुसार जैनधर्म का अनुसरण करो.....जिनमंदिर बनावाओ, जिनेन्द्रपूजन और महोत्सव कराओ, आपके लिए ये राज्य भंडार खुले हैं, इसलिए आप
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ दुःख छोड़ो ओर आपको जैसे प्रसन्नता होवे वैसा करो। आपको जैनधर्म के लिए सब कुछ करने की छूट है...... परन्तु मैं तो एकान्तमत को ही पालने वाला हूँ, मैं एकान्तमत को छोड़कर, अन्य किसी भी धर्म को उत्तम नहीं मानता हूँ।
अभय-अभी एकान्तमत के अभिमान से आप जैसा चाहो वैसा कहो, परन्तु मेरी बात याद रखना कि एक बार मेरी इन चेलना माता के प्रताप से आपको जैनधर्म की शरण में आना ही पड़ेगा और उस समय आपके पश्चात्ताप का पार नहीं रहेगा।
श्रेणिक- तुम यह बात छोड़ो। मेरे एकान्ती गुरु तो सर्वज्ञ हैं, वे सब बात जान सकते हैं।
चेलना- नहीं, महाराज ! वे सर्वज्ञ नहीं है, पर सर्वज्ञता का ढोंग करते हैं। जिसको अभी तक आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ही ज्ञान नहीं है, वह सर्वज्ञ कहाँ से हो सकता है ?
श्रेणिक- देवी ! परीक्षा किये बिना ऐसा कहना उचित नहीं है।
अभय-ठीक है महाराज ! आपके गुरु सर्वज्ञ हों तो आज हमारे यहाँ भोजन के लिए उनको आमंत्रित कीजिए, हम उनकी परीक्षा करेंगे।
श्रेणिक- बहुत अच्छा, मैं अभी मेरे गुरु को भोजन पर आमंत्रित करता हूँ। (राजा श्रेणिक चले जाते हैं।)
चेलना-पुत्र ! अब हम अपने जैनधर्म की प्रभावना के लिए सब उपाय कर सकते हैं। अब मैं महाराजा को बता दूंगी कि एकान्तमत कैसे ढोंगी है, परन्तु मुझे इतने से संतोष नहीं होगा। जब सारे नगर में, घरघर में एकान्तमत की जगह जैनधर्म का झंडा फहरायेगा और जैनधर्मकी जयनाद से पूरा नगर गुंजायमान होगा, तभी मुझे संतोष होगा।
अभय-हे माता ! आपके प्रताप से अब यह अवसर बहुत दूर
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नहीं। मुझे विश्वास है कि आपके प्रताप से अब महाराज थोड़े ही समय में एकान्तमत को छोड़कर जैनधर्म के परम भक्त बन जाएँगे और सम्पूर्ण नगर में जैनधर्म का जयकार गुंजायमान हो उठेगा।
चेलना - वाह, पुत्र वाह ! धन्य होगी वह घड़ी, जब हमारे दिगम्बर जैनधर्म का यहाँ मन्दिर होगा। मुझे तो मन्दिर दिखाई भी देने लगा ।
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अभय - मुझे भी ... । माता ! अवश्य होगा। हम मन्दिर बनायेंगे और सबसे पहले बनायेंगे। अरे हाँ.... अभी हम भक्ति करते हैं ।
60.c
छोटा-सा मन्दिर बनायेंगे, वीर गुण गायेंगे,
वीर गुण गायेंगे, महावीर गुण गायेंगे, छोटा-सा मन्दिर बनायेंगे,
वीर गुण गायेंगे ॥ टेक ॥
हाथों में लेके सोने के कलशे,
सोने के कलशे, चांदी के कलशे ।
प्रभुजी का न्न करायेंगे, वीर गुण गायेंगे । छोटा-सा मन्दिर ॥ १ ॥ हाथों में लेके पूजा की थाली,
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ पूजा की थाली, अष्टद्रव्यों की थाली। प्रभुजी का पूजन रचायेंगे, वीर गुण गायेंगे। छोटा-सा मन्दिर ॥२॥ हाथों में लेके झांझ मजीरे, झांझ मजीरे, भाव भरीजे। प्रभुजी की भक्ति करायेंगे, वीर गुण गायेंगे॥छोटा-सा मन्दिर ॥३॥ - चेलना-पुत्र अभय ! महाराज ने हमको जैनधर्म के लिए जो करना हो, वह करने की छूट दे दी है, उसका हम आज से ही उपयोग करेंगे। ___ अभय-हाँ माता ! हमें ऐसा ही करना चाहिए। नहीं तो एकान्ती गुरु बीच में विघ्न डालेंगे, परन्तु हम जैनधर्म की प्रभावना के लिए क्या उपाय करेंगे।
चेलना-पुत्र! मेरे हृदय में एक भव्य जिनमन्दिर बनवाने का विचार आया है, अभी दीवानजी को बुलाकर उसकी शुरुआत कर दें।
अभय- आपका विचार बहुत अच्छा है। हम जिनमन्दिर में श्री जिनेन्द्र भगवान की प्रतिष्ठा का ऐसा भव्य महोत्सव करें कि जैनधर्म का प्रभाव देखकर सारा नगर आश्चर्य में पड़ जाए।
चेलना- हाँ पुत्र ! ऐसा ही करेंगे। तुम अभी जाकर दीवानजी को बुला लाओ।
अभय- जाता हूँ माताजी। (जाकर दीवानजी सहित आता है)
चेलना- पधारो दीवानजी ! आपको एक मंगल कार्य सौंपने के लिए बुलाया है।
दीवानजी- कहिये महारानीजी ! क्या आज्ञा है ?
चेलना- देखो दीवानजी, मेरी इच्छा एक अत्यन्त भव्य जिनमन्दिर बनवाने की है। आप शीघ्र ही उसकी तैयारी करो तथा उसमें जिनेन्द्र भगवान के पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव की भी योजना बनाओ।
दीवानजी- जैसी आपकी आज्ञा, मेरा धन्य भाग्य है, जो ऐसा
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
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मंगल कार्य आपने मुझे सौंपा। इस मंगल कार्य के लिए कितनी सोने की मोहरें खर्च करने की आपकी इच्छा है ?
चेलना- दीवानजी ! कम से कम एक करोड़ सोने की मोहरें तो जरूर ही खर्च करने की आपके लिए छूट है। जिनमन्दिर की शोभा में, सुन्दरता में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रहनी चाहिए और प्रतिष्ठा महोत्सव तो ऐसा उत्कृष्ट और भव्य होना चाहिए कि सारा नगर जैनधर्म के जय-जयकार से गुंजायमान हो उठे। इस कार्य के लिए राज्य के भंडार खुले है ।
दीवानजी - जो आज्ञा, महारानी (दीवानजी चले जाते हैं और शीघ्र ही मन्दिर निर्माण का कार्य तेजी से आरम्भ करा देते हैं ।) तृतीय - दृश्य
रानी द्वारा परीक्षा होने पर एकान्ती गुरु क्षुब्ध ( मठ में एकान्ती गुरु आसन पर बैठे हैं ।)
( नेपथ्य से एकान्ती गुरु) एकान्तं शरणं गच्छामि । एकान्तं शरणं गच्छामि । एकान्तं शरणं गच्छामि । (श्रेणिक का प्रवेश )
श्रेणिक - नमोऽस्तु महाराज !
एकान्ती गुरु- पधारो राजन् ! चेलनाजी के क्या समाचार हैं ? श्रेणिक महाराज ! चेलना बहुत दिनों से उदास थी, कल ही मैंने उसको जैनधर्म के लिए जो करना हो वह करने की छूट दे दी है। एकान्ती गुरु- क्या चेलना को आपने जैनधर्म की छूट दे दी ?
श्रेणिक - जी हाँ ! और दूसरा समाचार यह है कि मैंने चेलना पास आपकी खूब प्रशंसा की, जिससे प्रभावित होकर उसने आपको भोजन का निमंत्रण दिया ।
-
एकान्ती गुरु- बहुत अच्छा राजन् ! हम जरूर आयेंगे और चेलना को समझाकर एकान्त धर्म का भक्त बनाएँगे ।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-1 .१२
श्रेणिक - हाँ महाराज ! पर बराबर ध्यान रखना, क्योंकि महारा धर्मश्रद्धा बहुत अडिग है । कहीं हम उसके जाल में नहीं फंस जाएँ। एकान्ती गुरु - अरे राजन् ! इसमें क्या बड़ी बात है ? एकान्ती बनाना तो हमारे बायें हाथ का खेल है ।
श्रेणिक बहुत अच्छा महाराज ! ( राजा श्रेणिक चले जाते हैं ।) एकान्ती गुरु - (हर्ष से) आज तो महारानी के यहाँ भोजन के लिए जाना है।
-
एकान्ती गुरु का शिष्य - हाँ हाँ गुरुदेव ! उसे समझाने का यह अच्छा अवसर है। (अभयकुमार की बहन आती है।)
बालिका - पधारिये महाराज ! माताजी आपको भोजन के लिए बुला रही हैं।
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एकान्ती गुरु हाँ चलिये ।
(एकान्ती गुरु-शिष्य जाते हैं। थोड़ी देर में अन्दर का परदा खुलता है, वहाँ चेलना और सखी बैठी हुई है।)
-
-
चेलना - सखी ! आज तो ऐसी युक्ति करना है कि एकान्ती गुरुओं की सर्वज्ञता का अभिमान चूर-चूर हो जाए ।
सखी बहन ! आपने कोई योजना विचारी है ?
-
आयेंगे।
चेलना - (कुछ धीरे से) हाँ सखी ! अभी एकान्ती गुरु मैं जब तुम्हें संकेत करूँ, तब तुम गुप-चुप जाकर प्रत्येक की एक-एक मोचड़ी छिपा देना ।
सखी
अच्छा माता ! एकान्ती गुरु आते ही होंगे।
( बालिका और एकान्ती गुरु आते हैं। अभयकुमार का पीछे से प्रवेश )
सखी - पधारो महाराज, यहाँ विराजो। (एकान्ती गुरु-शिष्य बैठते
हैं ।)
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
एकान्ती गुरु - आपके आमंत्रण से आज बहुत प्रसन्नता हुई है। (बालिका की ओर संकेत करते हुए) यह बालिका कौन है ? . एकान्ती गुरु का शिष्य - अच्छा, बहन ! इन गुरुजी को वंदन करो।
बालिका- नहीं महाराज ! मैं जैनगुरुओं के अतिरिक्त किसी भी अन्य गुरु को वंदन नहीं करती हूँ।
एकान्ती गुरु - क्यों नहीं करती हो ? . बालिका- क्योंकि, मैं, जो वीतरागी सर्वज्ञ हैं उन्हें तथा उनकी वाणी को और जो उनके मार्ग पर चलने वाले नग्न दिगम्बर मुनि हैं, उनको ही नमस्कार करती हूँ। __ एकान्ती गुरु का शिष्य - यह भी तो सर्वज्ञ हैं, फिर इन्हें नमस्कार क्यों नहीं करती।
बालिका - ऐसा ! आप सर्वज्ञ हो ?
एकान्ती गुरु - (विचार पूर्वक) बहन ! तेरे हाथ में सोने की मुहर है। सत्य है न ?
बालिका - असत्य ! बिलकुल असत्य। देखो महाराज ! मेरे हाथ में तो कुछ भी नहीं है, क्यों ? ऐसी ही है क्या आपकी सर्वज्ञता?
(एकान्ती गुरु के चेहरे पर कुछ विचित्र-सा भाव आकर चला जाता है।)
चेलना - अरे बेटी ! अब यह चर्चा छोड़ो, उनको भोजन करने बैठाओ।
अभय - महाराज ! भोजन करने पधारो।
(एकान्ती गुरु अन्दर जाते हैं। थोड़ी देर बाद भोजन करके वापस आ जाते हैं।)
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
एकान्ती गुरु - महारानीजी ! आज यहाँ आने से हमको बहुत आनन्द हुआ और आपकी इतनी धर्मश्रद्धा देखकर तो और भी विशेष आनंद हुआ। ___अभय - (व्यंग्य से) क्यों महाराज ? आपको यहाँ भोजन कराया, इसलिए क्या आप ऐसा मानते हो कि अब मेरी माताजी एकान्ती गुरु की अनुयायी बन गई हैं ? ... एकान्ती गुरु- हाँ, कुँवरजी ! हमको विश्वास है कि चेलना देवा जरूर एकान्तमत की भक्त बन जाएँगी और सम्पूर्ण भारत में एकान्ती गुरु की विजय का डंका बज जायेगा।
चेलना - (तेज स्वर में) अरे महाराज! आपकी यह बात स्वप्न में भी सच बनने वाली नहीं है। आपके जैसे लाखों एकान्ती साधु आ जाएँ तो भी मुझको जैनधर्म से नहीं डिगा सकते।
एकान्ती गुरु- महारानीजी ! आप जानती हो कि श्रेणिक महाराज भी एकान्ती गुरु के भक्त हैं। यदि आप एकान्तधर्म स्वीकार करोगी तो श्रेणिक महाराज आपके ऊपर बहुत प्रसन्न होवेंगे और राज्य की सम्पूर्ण सत्ता आपके ही हाथ में रहेगी।
चेलना- (तेज स्वर में) क्या राजसत्ता के लोभ में, मैं मेरे जैनधर्म को छोड़ दूँ। आप ध्यान रखिए, यह कभी भी संभव नहीं होगा।
अभय- (तेज स्वर में) महाराज ! यह राज्य तो क्या ? तीनलोक का साम्राज्य मिलता हो तो वह भी हमारे जैनधर्म के सामने तो तुच्छ ही है। तीनलोक का राज्य भी हमको जैनधर्म से डिगाने में समर्थ नहीं, तो आप क्या डिगा सकते हैं ? ।
एकान्ती गुरु- महारानीजी ! हम जानते हैं कि आप महाचतुर और बुद्धिमान हो यदि आप जैसे समर्थजन जैनधर्म को छोड़कर हमारे अनुयायी बने तो सम्पूर्ण देश में हमारी कीर्ति फैल जाएगी, इसलिए आप
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ चेतो और हमारी सलाह मान कर एकान्तमत स्वीकार करो। इसमें ही आपका हित है। यदि आप एकान्तमत को स्वीकार नहीं करोगी, तो आप पर भयंकर आफत आ पड़ेगी।
चेलना- (क्रोध से) क्या आप मुझको भय दिखाकर मेरा धर्म छुड़ाना चाहते हो ? ऐसी तुच्छबुद्धि आप कहाँ से लाये? जैनधर्म के भक्त कैसे नि:शंक और निर्भय होते हैं, इसका तो अभी आपको ज्ञान ही नहीं है। (शांतभाव से) जरा सुनो। जैनधर्म के भक्त को जगत का कोई लोभ और जगत की कोई प्रतिकूलता भी धर्म से नहीं डिगा सकती है। वीतरागी जैनधर्म के भक्त सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे नि:शंक और निर्भय होते हैं कि तीनलोक में खलबली मच जाए, ऐसा भयंकर वज्रपात हो तो भी अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते। ____ एकान्तीगुरु- (तेज स्वर में) सुनलो, महारानी ! आपको क्षणिकवाद अंगीकार करना ही पड़ेगा, नहीं तो हम महाराज के कान भरेंगे और आपको अपमानित होकर यह राजपाट भी छोड़ना पड़ेगा, इसलिए आप अभी भी मान जाओ और एकान्तमत को स्वीकार कर लो।
चेलना - मेरे जैनधर्म के समक्ष मुझको जगत के किसी मानअपमान की चिन्ता नहीं। लाखों-करोड़ों प्रतिकूलताओं का भय दिखाकर भी आप मुझे मेरे धर्म से नहीं डिगा सकते। हमारे धर्म में हम नि:शंक हैं और जगत में निर्भय हैं, सुनो
निःशंक हैं सद्दृष्टि बस, इसलिए ही निर्भय रहें। वे सप्तभय से मुक्त हैं, इसलिए ही निःशंक हैं। अभय - और सुनो - चाहे विविध बीमारियाँ, निजदेह में आकर बसें। चाहे हमारी सम्पदा, इस वक्त ही जाती रहे। चाहे सगे सम्बन्धी परिजन, का वियोग मुझे बने।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
चाहे दुश्मन हमको घेरे, ब्रह्माण्ड सारा हिल उठे । तो भी अरे जिनधर्म को, क्षण एक भी छोडूं नहीं । प्रतिकूलता आती रहें, निज रमणता छोडूं नहीं ॥
जगत की चाहे जिनती प्रतिकूलता आ जावे तो भी हम जैनधर्म से रंचमात्र भी डिगने वाले नहीं हैं, तो तुम्हारे जैसों कि क्या ताकत है कि जो हमको डिगा सको ?
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एकान्ती गुरु - ( सरलता से) महारानीजी ! आप भले ही अंतरंग में जैनधर्म की श्रद्धा रखना, पर बाहर में एकान्मत स्वीकार कर हमको सत्कार दो, जिससे हम एकान्तमत का प्रचार कर सकें ।
चेलना ( तेज स्वर में ) महाराज ! अब अपनी बात बन्द करो । जैनधर्म को छोड़ने के सम्बन्ध में अब आप एक शब्द भी मत कहना । अब आपको ही क्षणिकवाद छोड़कर स्याद्वाद की शरण में आना ही पड़ेगा। अभी तक तो आपकी बात चली, परन्तु अब हमारे राज्य में यह नहीं चलेगा।
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एकान्ती गुरु का शिष्य- अरे चेलना! हमारे एकान्ती गुरु तो सर्वज्ञ हैं, इनका आप अपमान कर रही हो ।
अभय ठीक महाराज ! आप कैसे सर्वज्ञ हो इसका अन्दाज
तो हमें अभी-अभी हो गया है, जब हमारी बहन के एक मामूली से प्रश्न का उत्तर भी आप सही नहीं दे पाये खैर.. . अब चर्चा बन्द करो आप, और शान्ति से पधारो ।
―
एकान्ती गुरु का शिष्य - ठीक है ! अभी तो जाते हैं, पर समय आने पर आपको मालूम पड़ेगा कि एकान्तियों का सामर्थ्य कितना है।
( एकान्ती मोचड़ी पहनने के लिए चले जाते हैं । वहाँ दोंनों की एक - एक मोचड़ी नहीं मिलती है, तब दोनों एक-एक मोचड़ी लेकर, दूसरी मोचड़ी खोज रहे हैं ।)
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ एकान्ती गुरु का शिष्य - अरे, मेरी एक मोचड़ी नहीं दिखती। एकान्ती गुरु - हमारी मोचड़ी कहाँ गई ?
एकान्ती गुरु का शिष्य - मोचड़ी कौन उठा ले गया ? मोचड़ी, मोचड़ी !
अभय - क्या हुआ महाराज ?
एकान्ती गुरु - कुमार ! हमारी एक-एक मोचड़ी कोई उठा ले गया है।
चेलना - क्या आपकी मोचड़ी कोई उठा ले गया है ? एकान्ती गुरु - हाँ, हमारी मोचड़ी कोई ले गया है। चेलना - (जोर से) अरे सैनिको ! (दो सैनिकों का प्रवेश) सैनिक - (विनय से) आज्ञा, महारानीजी !
चेलना - इन एकान्ती गुरुओं की यहाँ से कोई एक-एक मोचड़ी उठा ले गया है, तुम अतिशीघ्र मोचड़ी की खोज करके लाओ।
सैनिक - जो आज्ञा। (सैनिक एकान्ती गुरुओं की मोचड़ियों की खोज करने जाते हैं। चेलना, अभय और एकान्ती गुरु-शिष्य वही खड़े रहते हैं। कुछ क्षणों में सैनिक पुनः आ जाते हैं।)
सैनिक - महारानीजी ! सब जगह खोज की, पर मोचड़ियों का कहीं पता नहीं लग सका।
एकान्ती गुरु - (खिन्नता से) फिर यहाँ से मोचड़ी गई कहाँ ? यदि यहाँ से कोई उठा कर नहीं ले गया तो क्या धरती निगल गई ?
चेलना - (व्यंग्य से) हे महाराज ! अभी कुछ देर पहले आप ही कह रहे थे कि हम सर्वज्ञ हैं, फिर आप अपने ज्ञान से ही क्यों नहीं जान लेते कि आपकी मोचड़ी कहाँ गई ?
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
(एकान्ती गुरु-शिष्य यह सुनकर क्षुब्ध होते हुए एक-दूसरे की ओर ताकते रह जाते हैं।)
एकान्ती गुरु - (खेद से) यह तो हम नहीं जान सकते।
अभय - (व्यंग्य से) देखो, महाराज ! स्थूल वस्तु को भी आप नहीं जान सकते तो सर्वज्ञ होने का दावा किसलिए करते हो ? . एकान्ती गुरु - जरूर मोचड़ी तुम्हीं में से किसी ने छिपाई हैं।
एकान्ती गुरु का शिष्य - महारानीजी ! आपने दगा कर हमारा अपमान किया है।
चेलना- नहीं नहीं महाराज ! आपके अपमान के लिए हमने कुछ भी नहीं किया है, परन्तु हमने तो आपकी सर्वज्ञता की परीक्षा करके आपको यह अवश्य बताया है कि सर्वज्ञता के नाम से आप कैसे भ्रम का सेवन कर रहे हो।
अभय - (व्यंग्य से) हाँ, और अब आपके भक्त मेरे पिताजी को भी मालूम पड़ेगा कि आप उनके कैसे गुरु हैं ?
एकान्ती गुरु - (क्रोध से) महारानी ! घर पर बुलाकर आपने हमारा अपमान किया है, परन्तु याद रखना कि हम भी हमारे अपमान का बदला लेकर रहेंगे।
(एकान्ती गुरु-शिष्य आपे से बाहर होकर तेजी से श्रेणिक के पास जाने के लिए श्रेणिक के कक्ष में चले जाते हैं।)
श्रेणिक - (खड़े होकर) पधारो महाराज ! भोजन कर आए? एकान्ती - हाँ राजन् !
श्रेणिक - महाराज ! भोजन के बाद आपने चेलना को एकान्त धर्म का क्या उपदेश दिया ?
एकान्ती – राजन् ! चेलना रानी को एकान्त धर्म स्वीकार कराने
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ के लिए हमने बहुत कुछ कहा और धमकियाँ भी दीं, परन्तु वह जैन धर्म की हठ जरा भी नहीं छोड़ती। वहाँ तो उलटा हमारा ही अपमान हुआ।
श्रेणिक - क्या ? अपमान हुआ, महाराज ?
एकान्ती - राजन् ! हमारी ही मोचड़ी छुपाकर हमें ही अज्ञानी ठहरा दिया।
श्रेणिक - आपको आपकी मोचड़ी का ध्यान क्यों नहीं आया?
एकान्ती - भोजन के स्वाद में इसका ख्याल ही नहीं रहा, रानी ने हमारी सर्वज्ञता की परीक्षा में हमको झूठा सिद्ध किया और फिर भंयकर अपमानित करके हमें वहाँ निकाल दिया।
श्रेणिक - महाराज ! समय आने पर मैं भी चेलना के गुरु का अपमान करके इसका अपमान का बदला अवश्य लूँगा।
एकान्ती - हाँ राजन् ! यदि तुम एकान्त धर्म के सच्चे भक्त हो तो जरूर ऐसा करना।
श्रेणिक - (दृढ़ता से) जरूर करूँगा। (एकान्ती गुरु-शिष्य झुंझलाते हुए अपने मठ में चले जाते हैं।)
- चतुर्थ दृश्य श्रेणिक द्वारा मुनिराज पर उपसर्ग एवं सातवें नरक का आयुबंध
(राजा श्रेणिक राज भवन में अपने सामन्तों के साथ बैठे हैं। वहाँ दो सैनिक प्रवेश करते हैं। दोनों की वेशभूषा अलग-अलग हैं।)
श्रेणिक - चलो सामन्तो ! आज तो शिकार करने चलें।
(तीनों जाते हैं। श्रेणिक एकटक दूर से परदे की ओर देख रहे हैं। तभी परदे के अन्दर हल्की लाइट जलती है, मुनिराज का चित्र दिखाई देते हैं।)
श्रेणिक- अरे, वहाँ दूर-दूर क्या दिख रहा है ? क्या कोई शिकार हाथ में आया ?
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
सैनिक - जी हाँ महाराज ! यह कोई
शिकार लगता है।
( ध्यान से देखकर ) नहीं
सैनिक महाराज ! यह तो कोई मनुष्य लगता है और उसके पास-पास तेजोमय प्रभामण्डल भी दिख रहा है, इसलिए यह जरूर कोई महापुरुष होंगे।
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श्रेणिक - चलो, नजदीक जाकर मालूम करें । सैनिक - महाराज ! वहाँ तो कोई ध्यान में बैठा है।
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सैनिक - ( प्रसन्नता से ) ये तो जैनमुनि हैं । अहा ! देखो तो सही, इनकी मुद्रा कितनी शान्त है ! ऐसा लगता है मानो भगवान ही बैठे हों ।
श्रेणिक - अरे ! क्या जैनमुनि ? चेलना के गुरु ? ( क्रोध से) बस, आज तो मैं मेरे बैर का बदला ले ही लूँगा । चेलना ने मेरे गुरुओं का अपमान किया था, आज मैं उसके गुरु का अपमान करके बदला लूँगा ।
सैनिक - राजन् ! राजन् ! आपको यह शोभा नहीं देता । मुनिराज कैसे शान्त और वीतरागी हैं। इन पर क्रोध नहीं करना चाहिए ।
श्रेणिक - नहीं, नहीं, मैं तो अपने गुरु के अपमान का बदला लूँगा ही, तब ही मुझे चैन पड़ेगा। जाओ सैनिक ! इनके ऊपर शिकारी कुत्ते छोड़ दो।
सैनिक - महाराज ! ऐसा पाप कार्य आपको शोभा नहीं देता । श्रेणिक - ( क्रोध से ) मुझे शोभे या न शोभे, उसकी चिंता तुम मत करो, तुम आज्ञा का पालन करो ।
( सैनिक कुत्ते छोड़ देता है, परन्तु कुत्ते शान्त होकर मुनिराज के चरणों में बैठ जाते हैं ।)
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
सैनिक - (दु:खी होकर) राजन् ! अब भी चेतो, अरे ! जिनकी शान्त मुद्रा देखकर कुत्ते जैसे जानवर भी शान्त और नम्र हो गए, ऐसे मुनिराज पर क्रोध करना आपको उचित नहीं।
श्रेणिक - नहीं, नहीं, ये तो कोई जादूगर हैं, उसने जादू के मंत्र से कुत्तों को शान्त कर दिया है, परन्तु मैं आज बदला लिए बिना नहीं रहूँगा। (कुछ क्षण रुककर, इधर-उधर देखकर पुन: कहता है।) सैनिको! देखो, वह भयंकर मरा हुआ काला नाग यहाँ लाओ और इस मुनि के गले में पहना दो। (एक सैनिक सर्प लाकर श्रेणिक को देता है।)
श्रेणिक - लाओ!
(वह सर्प लेकर मुनिराज के गले में डाल देता है और अत्यन्त हास्य करता है। हा..हा...हा..। इस प्रसंग से दूसरा सैनिक बेभान जैसा होकर नीचे बैठ जाता है।)
श्रेणिक-बस! मेरे गुरु के अपमान का बदला मिल चुका है। चलो सैनिको, यह समाचार मुझे अपने गुरुओं को भी " देना है।
(तभी परदे में से -) “अरेरे..! धिक्कार ! धिक्कार ! धिक्कार ! परम वीतरागी जैनमुनि पर घोर उपसर्ग कर श्रेणिक राजा ने सातवें नरक का घोर पापकर्म बाँधा है।"
-यह सुनकर श्रेणिक कुछ क्षुब्ध होता है, फिर भी श्रेणिक एवं एक सैनिक वहाँ से एकान्ती गुरु को यह समाचार देने के लिए उनके मठ की ओर चले जाते हैं, परन्तु दूसरा सैनिक वहीं बैठा रहता है।)
(एकान्ती गुरु मठ में बैठे हैं। राजा श्रेणिक आकर वंदन करते हैं।)
एकान्ती गुरु - क्यों महाराज ! क्या कोई खुशी के समाचार लाए हो, जो इतने हर्षित नजर आ रहे हो ?
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
श्रेणिक- (हर्ष से) हाँ महाराज ! मैं आज जंगल में शिकार करने गया था, वहाँ मैंने एक जैन मुनिराज को देखा।
एकान्ती गुरु - ऐसा ? फिर क्या हुआ ? श्रेणिक-फिर तो मैंने उनसे आपके अपमान का बदला ले लिया।
एकान्ती गुरु - किस तरीके से ? क्या तुमने वाद-विवाद करके उन्हें हरा दिया। - श्रेणिक - नहीं महाराज ! वाद-विवाद में जैनमुनियों को हराना सरल नहीं है ? मैंने तो उनके ऊपर शिकारी कुत्ते छोड़े, परन्तु कौन जाने वे कुत्ते भी शान्त होकर वहीं क्यों बैठ गए।
एकान्ती गुरु - ऐसा ! फिर क्या हुआ?
श्रेणिक – महाराज ! फिर तो मैंने एक बड़ा सर्प लेकर उनके गले में पहना दिया।
एकान्ती गुरु - अरे राजन् ! तुमने यह क्या किया ? ऐसा अयोग्य कृत्य तुम्हें कैसे सूझा।
श्रेणिक - महाराज ! मैंने आपके अपमान का बदला लिया है। .. एकान्ती गुरु - नहीं , इस तरीके से बदला नहीं लिया जाता।
एकान्ती गुरु का शिष्य - जो होना था,वह तो हो ही गया। अब यह खबर चेलना रानी को भी बता देना, ताकि उसको भी मालूम हो जाए कि एकान्ती गुरुओं का अपमान करना सरल बात नहीं है।
श्रेणिक - हाँ महाराज ! मैं वहाँ ही जा रहा हूँ। (महारानी चेलना चिंता में बैठी हैं, वहाँ अभयकुमार आते हैं।) अभय - प्रणाम माताजी ! किस चिंता में डूबी हो ?
चेलना - पुत्र ! आज मुझे अनेक प्रकार के बुरे-बुरे ख्याल आ रहे हैं, ऐसा लगता है जैसे कहीं कोई अनिष्ट हुआ हो। जैनधर्म पर
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ महासंकट आया हो। पुत्र ! मेरे हृदय में बहुत व्याकुलता हो रही है।
अभय - माता ! चिंता न करो। जैनधर्म के प्रताप से सर्व मंगल ही होगा, सर्व संकट टलकर जरूर धर्म की महाप्रभावना होगी।
चेलना - पुत्र ! सुनसान राज्य में मेरे साधर्मी रूप में एक तू ही है। मरे हृदय की व्यथा मैं तेरे सिवाय किसको कहूँ ? भाई ! आज सुबह से ही महाराज भी नहीं आये, पता नहीं कौन जाने क्या खटपट चलती होगी ?
अभय - माता ! आज तो महाराज शिकार खेलने गये थे और जब वहाँ से वापस आये, तब सीधे एकान्ती गुरुओं के पास में जाकर महाराज ने उनसे कुछ बात कही थी और उसको सुनकर एकान्ती गुरु भी हर्षित थे।
चेलना- हाँ पुत्र ! जरूर इसमें ही कुछ रहस्य होगा। अपने गुप्तचरों को अभी इसकी जानकारी करने भेजो।
अभय - हाँ माता ! अभी भेजता हूँ। (कुछ दूर जाकर गुप्तचरों को आवाज देता है।) गुप्तचरो ! गुप्तचरो ! (दो गुप्तचरों का प्रवेश)
गुप्तचर - जी हजूर !
अभय - तुम अभी जाओ और नई-पुरानी कुछ विशेष बात हो तो मालूम करके और उसकी सूचना हमें दो।
गुप्तचर - जैसी आज्ञा। (गुप्तचर चले जाते हैं।)
अभय - माता ! खबर करने के लिए गुप्तचर भेज दिए हैं। उनके समाचार आवें, तबतक इसप्रकार उदास बैठे रहने से तो अच्छा है, हम कुछ धार्मिक चर्चा करें जिससे मन में प्रसन्नता हो।
चेलना- हाँ पुत्र ! तेरी बात सत्य है। ऐसे दुःख संकट में धर्म ही शरण है।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
अभय - माता ! धर्मात्माओं पर भी संकट क्यों आते हैं ?
चेलना-पुत्र, पूर्व में जिसने देव-गुरु-धर्म की कोई विराधना की हो, उसी कारण उसे ऐसी प्रतिकूलता के प्रसंग आते हैं। ___अभय - हे माता ! प्रतिकूल संयोगों में भी जीव अपने स्वरूप की साधनारूपी धर्म कर सकता है ?
चेलना - हाँ पुत्र ! कैसे भी प्रतिकूल संयोग हों, जीव अपने स्वरूप की साधनारूपी धर्म कर सकता है, धर्म करने में बाहर के कोई संयोग जीव को बाधक नहीं होते।
अभय – पर अनुकूल संयोग हो तो धर्म करने में वह कुछ मदद तो मिलती है न ?
चेलना - नहीं पुत्र ! धर्म तो आत्मा के आधार से है। संयोग के आधार से धर्म नहीं। संयोग का तो आत्मा में अभाव है।
अभय – फिर अनुकूल और प्रतिकूल संयोग क्यों मिलते है ?
चेलना - यह तो पूर्व भव में जैसे पुण्य-पाप भाव जीव ने किए हों वैसे संयोग अभी मिलते हैं। पुण्य के फल में अनुकूल संयोग मिलते हैं। पाप के फल में प्रतिकूल संयोग मिलते हैं, परन्तु धर्म तो दोनों से भिन्न वस्तु है।
अभय - माताजी ! इस विचित्र संसार में कोई अधर्मी जीव भी सुखी दिखता है और कोई धर्मी जीव भी दुःखी दिखता है। इसका क्या कारण है ?
चेलना-पुत्र! अज्ञानी जीव को सच्चा सुख होता ही नहीं। आत्मा का अतीन्द्रिय सुख ही सच्चा सुख है। और वह ज्ञानी के ही होता है, अज्ञानी के तो उसकी गंध भी नहीं होती। अधर्मी जीवों के जो सुख दिखता है, वह वास्तव में सुख नहीं, मात्र कल्पना है, सुखाभास है।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ अज्ञानी के पूर्व पुण्य के उदय से बाह्य अनुकूलता हो तो भी वह वास्तव में दुःखी ही है। ज्ञानी के कदाचित् पाप के उदय से बाह्य में प्रतिकूलता हो तो भी वह वास्तव में सुखी ही है।
अभय-क्या प्रतिकूलता में ज्ञानी की श्रद्धा डिग नहीं जाती होगी? __ चेलना- नहीं पुत्र ! बिल्कुल नहीं, बाहर में कैसी भी प्रतिकूलता हो तो भी समकिती धर्मात्मा के सम्यक्-श्रद्धा और सम्यग्ज्ञान जरा भी दूषित नहीं होता। अरे! तीनलोक में खलबली मच जाए तो भी समकिती अपने स्वरूप की श्रद्धा से जरा भी नहीं डिगते। ___अभय-अहो माता ! धन्य हैं ऐसे समकिती सन्तों को ! ऐसे सुखी समकिती का अतीन्द्रिय आनन्द कैसा होगा ?
चेलना- अहो, पुत्र अभय ! वह समस्त इन्द्रिय सुखों से विलक्षण जाति का आनन्द होता है। जैसा सिद्ध भगवान का आनन्द, जैसा वीतरागी मुनिवरों का आनन्द, वैसा ही समकिती का आनन्द है। सिद्ध भगवान के समान आनन्द का स्वाद समकिती ने चख लिया है। ___अभय - माता ! इस सम्यग्दर्शन के लिए कैसा प्रयत्न होता है, वह मुझे भी विस्तार से समझाओ।
चेलना - तूने बहुत सुन्दर और अच्छा प्रश्न पूछा । सुन, पहले तो अन्तर में आत्मा की इतनी रुचि जागे कि आत्मा की बात के अलावा उसे दूसरी किसी भी बात में रुचि न लगे और सद्गुरु का समागम करके तत्त्व का बराबर निर्णय करे, बाद में दिन-रात अन्तर में गहरा-गहरा मंथन करके भेदज्ञान का अभ्यास करे। बार-बार इस भेदज्ञान का अभ्यास करते-करते जब हृदय में उत्कृष्ट आत्म-स्वभाव की महिमा आये तब उसका निर्विकल्प अनुभव होता है, वेदन होता है। पुत्र ! सम्यग्दर्शन प्रकट करने के लिए ऐसा प्रयत्न होता है। इसकी महिमा अपार है।
अभय - अहो माता ! सग्यग्दर्शन की महिमा समझाने की तो
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ आपने महान कृपा की है। अब इसकी भावना जगाने वाला कोई प्रेरक भजन भी सुनाओ न।
चेलना - जरूर बेटा ? तुम भी मेरे साथ दुहराना। अभय - जी माता ! आप शुरु कीजिये।
(दोनों भजन गाते हैं।) धिक् ! धिक् ! जीवन समकित बिना। दान शील तप व्रत श्रुत पूजा, आतमहित न एक गिना।।टेक॥ ज्यों बिनु कंत कामिनी शोभा, अंबुज बिनु सरवर सूना। जैसे बिना एकड़े बिंदी, त्यों समकित बिनु सरब गुना ॥२॥ जैसे भूप बिना सब सेना, जीव बिना मन्दिर चुनना। जैसे चंद बिहूनी रजनी, इन्हें आदि जानो निपुना ॥३॥ देव-जिनेन्द्र साधु-गुरु करुणाधर्म-राग व्योहार भना। निहचै देवधरमगुरु आतम, द्यानत गहिमन-वचन-तना ॥४॥
(भजन पूरा होने पर कुछ क्षण उस पर विचार करते हैं। फिर...) चेलना - बेटा अभय ! अभी तक कोई समाचार नहीं आए? अभय – (बाहर झांकते हुए) माता, एक गुप्तचर आ रहा है।
पंचम दृश्य उपसर्गविजयी मुनिराज का उपसर्ग दूर एवं राजा श्रेणिक द्वारा जैनधर्म अंगीकार
(गुप्तचर आते हैं।) गुप्तचर - (खेद से) माता-माता ! एक गम्भीर घटना घट गई है, उसके समाचार देने के लिए महाराज स्वयं ही आ रहे हैं।
___(श्रेणिक राजा का प्रवेश) चेलना - पधारो महाराज ! क्या बात है? आज...? .
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
श्रेणिक- हाँ देवी ! आज मैं जंगल शिकार करने गया था। वहाँ एक विचित्र-सा बनाव बन गया।
चेलना - क्या बात है महाराज ! जल्दी कहो। श्रेणिक - वहाँ जंगल में हमने एक जैनमुनि को देखा।
चेलना- (प्रसन्नता से) मेरे गुरु के दर्शन हुए, वाह ! बाद में क्या हुआ ?
श्रेणिक- बाद में तो जैसे आपने मेरे गुरु का अपमान किया, वैसे ही मैंने भी तुम्हारे गुरु का अपमान कर बदला ले लिया।
चेलना - (दुःखी होकर) अरे रे, आपने ये क्या किया महाराज?
श्रेणिक - सुनो देवी ! पहले तो हमने उनके ऊपर शिकारी कुत्ते छोड़े, पर वे कुत्ते तो उनको देखते ही एकदम शान्त हो गए।
चेलना- (हर्ष से) वाह, धन्य मेरे गुरु का प्रभाव! धन्यवेवीतरागी मुनिराज!
श्रेणिक-चेलना ! पूरी बात तो सुनो। बाद में तो मैंने एक भयंकर काला नाग लेकर तुम्हारे गुरू के गले में डाल दिया।
चेलना – हैं ? क्या ? 'रे गुरु के गले में आपने नाग डाला ? अरेरे..! धिक्कार है तुम्हें, धिक्कार है इस संसार को। अरेरे..! इससे तो मैंने कुँवारी रहकर दीक्षा ले ली होती तो अच्छा रहता। अरे राजन् ! आपने यह क्या किया ? __ अभय - धैर्य रखो, माता ! अब हमें शीघ्र ही कोई उपाय करना चाहिए।
चेलना- अरे भाई ! अपने गुरू के ऊपर घोर उपसर्ग आया, ऐसी रात्रि में हम क्या करेंगे ? जंगल में कहाँ जाएँगे ? मुनिराज को कहाँ खोजेंगे? अरे, उन मुनिराज का क्या हुआ होगा ? हे भगवन् !...(कहतेकहते बेहोश हो जाती है।)
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
अभय - (अतिशीघ्रता से) माता ! उठो, उठो! ऐसे गंभीर प्रसंग में आप धैर्य खोओगी, तो मैं क्या करूँगा ? हे माता ! चेतो! हम जल्दी ही कोई उपाय करते हैं।
(महारानी चेलना को हाथ पकड़कर उठाता है।) चेलना - चलो बेटा चलो, हम अभी जंगल में जाकर मुनिराज के उपसर्ग को दूर करेंगे। . श्रेणिक - देवी ! आप शोक मत करो। आपके गुरू तो कभी के सर्प को दूर फेंककर चले गए होंगे।
चेलना - नहीं-नहीं राजन् ! यह तो आपका भ्रम है। कैसा भी भयंकर उपद्रव हो जाए तो भी हमारे जैनमुनि ध्यान से चलायमान नहीं होते। यदि वे सच्चे मुनिराज होंगे तो अभी भी वे वहीं वैसे ही विराज रहे होंगे। वे चैतन्य के ध्यान में अचल मेरू पर्वत समान बैठे होंगे।
अभय - माता ! माता ! अब जल्दी चलो। अपने गुरू का क्या होगा ? अरे ! ऐसे शान्त मुनिराज को हम सब देखेंगे ?
चेलना- चलो पुत्र ! इसी वक्त हम उनके पास जायें और उनका उपसर्ग दूर करें।
(वे चलना प्रारम्भ करते हैं और श्रेणिक रोकता है।) । श्रेणिक - अरे ! ऐसी रात्रि में तुम जंगल में कहाँ जाओगी, अपन सुबह चलकर मालूम कर लेंगे, मैं भी आपके साथ चलूँगा।
चेलना- नहीं राजन् ! अब हम एकक्षण भी नहीं रुक सकते। अरेरे! आपने भारी अनर्थ किया है। महाराज ! हम अभी इसी समय जंगल में जाएंगे और मुनिराज को खोज कर उनका उपसर्ग दूर करेंगे। मुनिराज का उपसर्ग दूर न हो तबतक हमको चैन नहीं पड़ेगी, हमारी प्रतिज्ञा है कि जबतक हमको उन मुनिराज के दर्शन न हों और उनका उपसर्ग दूर न हो, तबतक हमारे सर्व प्रकार अन्न-पानी का त्याग है। (कुछ रुककर अभयकुमार की ओर देखते हुए) पुत्र ! चलो। (चलना पुनः प्रारम्भ करते हैं।)
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
श्रेणिक - खड़ी रहो देवी ! मैं भी आपके साथ आता है। और आपको मुनिराज का स्थान बताता हूँ।
अभय - बहुत अच्छा पिताजी ! चलो।
(सभी लाइटें बंद कर दी जाती हैं। सब हाथ में टार्च लेकर चलते हैं। अन्दर जाकर परदे की दूसरी तरफ से मुनिराज को खोजते-खोजते बाहर आते हैं। तथा मंद-मंद ध्वनि से निम्न गीत गुन-गुनाते हैं। फिर धीरे-धीरे प्रकाश होता है अर्थात् सबेरा हो जाता है और एक चित्र में मुनिराज दिखाये जाते हैं।)
चेलना-अरे देखो, देखो! मुनिराज तो ऐसे के ऐसे ध्यान में विराज रहे हैं। अभय - जय हो ! यशोधर मुनिराज की जय हो !
चेलना - कुमार ! चलो, सर्प को शीघ्र ही दूर करें।
(श्रेणिक हाथ जोड़कर खड़े-खड़े देख रहे हैं। चेलना तथा अभय दोनों लकड़ी से सर्प को दूर कर रहे हैं।)
र सदा समता या
SM-15
अभय - अहा मुनिराज ! धन्य है आपकी वीतरागता ! चेलना - पुत्र ! चलो, अब मुनिराज के शरीर को साफ करें।
(पीछी से शरीर को साफ करते हैं। बाद में वंदन करके बैठ जाते हैं। श्रेणिक एक तरफ स्तब्ध से खड़े हैं।)
चेलना - बैठो महाराज ! मुनिराज तो अभी ध्यान में हैं। अभी उनका ध्यान पूरा होगा। (श्रेणिक बैठ जाते हैं।)
चेलना - (अभयकुमार से) हम मुनिराज की भक्ति करें।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
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अभय
जरूर माता ! (भक्ति प्रारम्भ कर देते हैं ।)
ऐसे मुनिवर देखे वन में, जाके राग-द्वेष नहीं मन में ।। टेक ॥ ग्रीष्म ऋतु शिखर के ऊपर, मगन रहे ध्यानन में ॥१॥ चातुर्मास तरुतल ठाड़े, बूँद सहे छिन छिन में ॥२॥ शीत मास दरिया के किनारे, धीर धरें ध्यानन में ॥३॥ ऐसे गुरु को मैं नित प्रति ध्याऊँ, देत ढोक चरनन में ॥४॥ चेलना - ( ( हाथ जोड़ कर गद्गद् भाव से) हे प्रभो ! अब उपसर्ग सर्व प्रकार से दूर हुआ है। प्रभो ! अब ध्यान छोड़ो, हमारे ऊपर कृपादृष्टि करो। प्रभो ! हम बालकों पर कृपा करो ।
मुनिराज - धर्मवृद्धिरस्तु ! आप सबको धर्मवृद्धि हो ।
( मुनिराज के ये शब्द परदे में से आते हैं ।)
श्रेणिक - अरे, क्या मुनिराज ने मुझको भी धर्मवृद्धि का आशीर्वाद
दिया ?
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चेलना हाँ महाराज ! जैनमुनि तो वीतरागी होते हैं। उनके शत्रु और मित्र के प्रति समभाव होता है। चाहे कोई पूजा करे, चाहे निंदा करे तो भी उनके प्रति समभाव है। चाहे हीरों का हार, चाहे फणीधर नाग,इन दोनों में भी उनको समभाव होता है । अहो ! यही तो है इन मुनिवरों की महानता।
अरि-मित्र महल - मशान, कंचन - काँच निन्दन - श्रुति करन । अर्घावतारण असिप्रहारण, में सदा समता धरन ॥
शत्रु -1 -मित्र प्रति वर्ते है समदर्शिता, मान-अमाने वर्ते वही स्वभाव जो । जीवित के मरणे नहिं न्यूनाधीकता, भव- मोक्षेपण शुद्ध वर्ते समभावजो ॥
श्रेणिक - अहो देवी ! धन्य है इन मुनिराज को । वास्तव में जैन मुनियों के समान जगत में दूसरा कोई नहीं । अरे रे ! मुझ पापी ने यह कैसा महा भयंकर अपराध किया ?
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
चेलना - नाथ ! आपने कैसा भी उपसर्ग किया, पर ये वीतरागी मुनिराज तो स्वयं के क्षमा धर्म में अडिग ही रहे हैं और ऊपर भी करुणा दृष्टि रखकर आपको धर्मवृद्धि का आशीर्वाद दिया है। प्रभो ! वीतरागी मुनिवरों का यह जैनधर्म ही उत्तम है। आप इस धर्म की शरण ग्रहण करो। जैनधर्म की शरण से कैसे भी भंयकर पापों का नाश हो जाता है। ___अभय - पिताजी ! अब अन्तर की उमंग से जैनधर्म को स्वीकार करो और सर्व पापों का प्रायश्चित्त कर लो। चेलना माता के प्रताप से आपने यह धन्य अवसर पाया है।
श्रेणिक- (गद्गद् होकर) प्रभो! प्रभो! मेरे अपराध क्षमा करो प्रभो! इस पापी का उद्धार करो। अरे रे ! जैनधर्म की विराधता करके मैंने भयंकर अपराध किया, इस पाप से मैं कब छूटूंगा। प्रभो ! मुझको शरण दो ! मैं अब जैनधर्म की शरण ग्रहण करता हूँ- “मुझको अरिहंत भगवान की शरण हो। मुझको सिद्ध भगवान की शरण हो। मुझको जैन मुनिवरों की शरण हो। मुझको जैनधर्म की शरण हो।"
प्रभु पतित पावन मैं अपावन, चरण आयो शरण जी। यो विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरण जी। तुम ना पिछान्यो आन मान्यो, देव विविध प्रकार जी। या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी। धन घड़ी यो धन दिवस यो, ही धन जनम मेरो भयो। अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभु को लख लयो।
मैं हाथ जोड़ नवाऊँ मस्तक, विनवू तव चरण जी। - करना क्षमा मुझ अधम को, तुम सुनो तारनतरन जी।
हे नाथ ! मैं मन से, वचन से, काया से, सर्व प्रकार से, आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में पवित्र जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ। प्रभो! मेरे अपराध क्षमा करो।"
मुनिराज - हे राजन् ! जैनधर्म के प्रताप से तुम्हारा कल्याण हो,
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ धर्म की वृद्धि हो। परिणाम का पलटना यही सच्चा प्रायश्चित्त है, राजन्! तुम्हारा धन्य भाग्य है जो कि ऐसे परम पावन जैनधर्म की प्राप्ति हुई। अब सर्व प्रकार से उसकी आराधना और प्रभावना करना।
श्रेणिक-प्रभो! आपने मेरा उद्धार किया है, आज मेरा नया जन्म हुआ है। नाथ! अब मेरे सम्पूर्ण राज्य में जैनधर्म का ही झंडा फहरायेगा, जगह-जगह जिनमन्दिर होंगे, इस महान जैनधर्म को छोड़कर दूसरे किसी अन्य धर्म का मैं स्वप्न में भी आदर नहीं करूंगा।
चेलना-(हर्ष से) प्रभो! आज हमारे आनन्द कापार नहीं। आपके प्रताप से जैनधर्म की जय हुई। प्रभो ! मुझको यह बतावें कि श्रेणिक महाराज की मुक्ति कब होगी ?
मुनिराज - तुमने उत्तम प्रश्न पूछा है। सुनो ! कुछ ही समय बाद इस राजगृही नगरी में त्रिलोकीनाथ महावीर भगवान पधारेंगे, उस समय प्रभुजी के चरण-कमल में श्रेणिक महाराज क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट करेंगे। इतना ही नहीं तीर्थंकर भगवान के चरणकमल में उन्हें तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति का बंध होगा और वे आने वाली चौबीसी में भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थकर होकर मोक्ष पायेंगे।
चेलना - अहो नाथ ! आपके श्रीमुख से मंगल बात जानकर हमारा आत्मा हर्ष से नाच उठा है।
श्रेणिक - धन्य प्रभो ! आपके श्रीमुख से मेरे मोक्ष की बात सुन कर मेरा आत्मा आनन्द से उछल गया है। प्रभो! मानो मेरे हाथ में मोक्ष आ गया हो- ऐसा मुझको आनन्द होता है। ___ अभय-माता ! अन्त में आपकी भावना सफल हुई और जैनधर्म की जय हुई, जिससे मुझको अपार आनन्द हुआ है।
(जब दीवानजी ने यह समाचार सुना कि महाराज और महारानी आदिजंगल में गये हैं। तब वे भी जंगल की ओर चल दिये और वहाँ पहुँच गये, जहाँ सभी बैठे हुए थे।)
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
चेलना - लो दीवानजी ! कोई मंगल समाचार लेकर आये हैं।
दीवानजी- नमोऽस्तु गुरुवर ! महाराज और महारानी को भी मेरा प्रणाम। मैं एक अतिशुभ समाचार लेकर आया हूँ महारानीजी !
चेलना-कहो, क्या समाचार लाए हो? क्या मन्दिर बनकर तैयार हो गया है ?
दीवानजी - जी महारानीजी ! आपकी आज्ञा के अनुसार भव्य जिनमन्दिर बनकर तैयार हो गया है। अपने राज्य में जितने मन्दिर हैं, उन सबमें यह जिनमन्दिर उत्तम है। इसको बनाने में एक करोड़ सोने की मोहरें खर्च हुई हैं। अब उसके प्रतिष्ठा महोत्सव की तैयारी करनी है।
श्रेणिक - दीवानजी ! आज से ही महोत्सव की तैयारी करो, सम्पूर्ण नगरी को सुन्दर बनाओ और जिनमन्दिर पर सोने के कलश चढ़ाओ, जिनेन्द्र भगवान की प्रतिष्ठा का महोत्सव ऐसा धूमधाम से होना चाहिए कि सम्पूर्ण नगरी जैनधर्म की प्रभावना से आनन्दित हो उठे, राज्य भंडार में धन की कोई कमी नहीं है। इस महोत्सव में जितना चाहो उतना खर्च करो, परन्तु पंचकल्याणक महोत्सव एकदम अपूर्व होना चाहिए। अपना कैसा धन्य भाग्य है कि पंचकल्याणक महोत्सव के प्रसंग में अपने आँगन में मुनिराज भी विराज रहे हैं।
चेलना – महाराज ! धन्य है आपकी भावना चलो हम भी महोत्सव की तैयारी करें।
अभय - ठहरिये, हम भक्ति कर लें। सन्मार्गदर्शी बोधिदाता, कृपा अति बरसावते । आश्रयी करुणाभाव से, मुझ रंक को उद्धारते॥ विमल ज्ञानी शांतमूर्ति, दिव्यगुण से दीप्त हो । मुनिवर चरण में नम्रता से, कोटिशः मम शीस हो। चेलना - बोलो, श्री यशोधर मुनिराज की जय ! श्रेणिक - बोलो, परम-पवित्र जैनधर्म की जय !
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
षष्टम् दृश्य
श्रेणिक द्वारा जैनधर्म की विजय घोषणा
(बड़े ही धूमधाम से पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न होता है, और जैनधर्म की विशाल रथयात्रा निकाली जाती है, जिसे देखकर सम्पूर्ण प्रजा अपने को
धन्य मानने लगती है और इसका सम्पूर्ण श्रेय महारानी चेलना को देते हुए आपस में उनकी प्रशंसा करने लगते हैं। तभी राजा श्रेणिक भी खड़े होकर घोषणा करते हैं ।)
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श्रेणिक - धर्मप्रेमी समाज ! आज मैं नई बात विज्ञापित करता हूँ। आप सभी जानते हो कि मैं अभी तक एकान्तमत का अनुयायी था, परन्तु अब मुझको महारानी चेलना के प्रताप से सत्य वस्तु स्वरूप
हेत-पत्र
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ की पहचान हुई है और परम-पावन जैनधर्म की प्राप्ति हुई है। श्री जिनेन्द्र भगवान का शासन ही इस संसार में शरणभूत है। अभी तक अज्ञान में मैंने ऐसे पवित्र जैनधर्म का अनादर किया, उसका मुझको बहुत पश्चाताप हो रहा है। अब मैंने एकान्तधर्म को छोड़कर जैनधर्म को स्वीकार किया है। आज से सर्वज्ञ भगवान ही मेरे इष्टदेव हैं और वीतरागी निग्रंथ मुनिराज ही मेरे गुरु हैं। आज से राजधर्म भी जैनधर्म ही रहेगा और राजमहल के ऊपर जैनधर्म का ही झंडा फहरायेगा। (झंडा हाथ में लेकर ऊँचा करते हैं, पुष्पवृष्टि होती है, बाजे बजते हैं।) .
सभाजन - धन्य हो ! धन्य हो महाराज ! आप धन्य हो ! (एकसाथ हर्षनाद)
चेलना - (खड़ी होकर) धर्मप्रेमी बन्धुओ ! महाराज ने जैनधर्म के स्वीकारने की सूचना दी है। उससे मुझको अपार हर्ष हो रहा है। इस जगत में कल्याणकारी एक जैनधर्म ही है। इस घोर संसार में सज्जनों को शरणभूत एकमात्र यह जैनधर्म ही है। हे भव्यजीवो ! यदि आप इस भव-भ्रमण के दुःख से थक चुके हो और आत्मा की मोक्षदशा प्रकट करना चाहते हो तो इस सर्वज्ञ प्रणीत जैनधर्म की शरण में रहो।
दीवानजी – (खड़े होक) महाराज और महारानीजी ने इस जैनधर्म सम्बन्धी जो सूचना दी है, उससे मुझको अत्यन्त आनन्द हो रहा है। अब इस संसार-समुद्र से छूटने के लिए मैं भी अत्यन्त उल्लास पूर्वक जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ। अपने महाराज ने अनेक प्रकार से परीक्षा करके जैन धर्म को स्वीकार किया है, इसलिए समस्त प्रजाजन भी स्वयं आत्महित के लिए इस जैनधर्म को स्वीकार करो। ऐसी मेरी अन्त:करण की भावना है। सैनिक- (हाथ जोड़कर) महाराज ! मैं जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
सैनिक
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( हाथ जोड़कर) मैं भी जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ ।
(एकान्ती गुरु आते हैं ।)
एकान्ती - (हाथ जोड़कर, गद्गद् भाव से) महाराज ! हमको क्षमा करो। हमने अभी तक दंभ करके आपको ठगा । अरे रे ! पवित्र जैनधर्म की निंदा करके हमने घोर पाप का बंध किया। राजन् ! अब हमें हमारे पापों का पश्चाताप हो रहा है। हमारे पापों को क्षमा करो। हमारा उद्धार करो। अब हम जैनधर्म की शरण लेते हैं।
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( श्रेणिक राजा चेलना के सामने देखते हैं ।)
चेलना - महाराज ! अब आपको इस सत्य की सच्ची पहिचान हुई है, यह आपका सद्भाग्य है। जैनधर्म तो पावन है। इसकी शरण में आये पापी प्राणियों का भी उद्धार हो जाता है।
एकान्ती - (हाथ जोड़कर) देवी ! हमारे अपराध क्षमा करो। हम भ्रम में थे। आपने ही हमारा उद्धार किया है । कुमार्ग से छुड़ाकर आपने ही हमको सच्चे मार्ग में स्थापित किया है। माता ! आपका उपकार हम कभी नहीं भूलेंगे ।
( मंच पर नगरसेठ आता है ।)
दीवानजी - लो, ये नगरसेठ भी पधार गये ।
श्रेणिक - पधारो, नगरसेठ ! पधारो !
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नगरसेठ • महाराज ! मैं एक मंगल बधाई देने आया हूँ। चेलना माता के प्रताप से आपने जैनधर्म को अंगीकार किया, इस समाचार से सम्पूर्ण नगरी में आनन्द फैल गया है, सम्पूर्ण नगरी जैनधर्म के जयकारे से गुंजायमान हो रही है। महाराज ! मुझको यह बताते हुए बहुत आनन्द हो रहा है कि सम्पूर्ण नगरी के समस्त प्रजाजन जैनधर्म अंगीकार करने को तैयार हो गए हैं। आज से मैं और समस्त प्रजाजन जैनधर्म को स्वीकार करते हैं।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
श्रेणिक - अहो ! धन्य है, एक-एक प्रजाजन धन्य है ।
नगरसेठ - महाराज ! दूसरी बात यह है कि समस्त प्रजाजनों को महापवित्र जैनधर्म की प्राप्ति चेलना माता के प्रताप से ही हुई है । इसलिए उनका सम्मान करते हैं और उन्हें समस्त प्रजा की धर्ममाता के रूप में स्वीकार करते
हैं । (हर्षनाद)
श्रेणिक - बराबर है सेठजी ! मुझको और समस्त प्रजा को महारानी के प्रताप से ही जैनधर्म की प्राप्ति हुई है । आपने उनका सम्मान किया है। वह योग्य ही है। (दूर से या परदे से वाद्ययंत्रों का नाद ।) ( सामने से श्रीमाली प्रवेश
करता है ।) माली बधाई, महाराज बधाई !
महाराज ! सबको आनन्द उत्पन्न हो ऐसी बधाई लाया हूँ ।
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त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव भगवान १००८ श्री महावीर परमात्मा का समवशरण सहित अपनी नगरी के उद्यान में पदार्पण हुआ । ( श्रेणिक सहित सब खड़े हो जाते हैं ।)
श्रेणिक अहो ! भगवान पधारे ! धन्य घड़ी ! धन्य भाग्य ! नमस्कार हो त्रिलोकी नाथ भगवान की जय हो !
( जरा-सा चलकर ) नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु !
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
चेलना - अहो, धन्य अवतार ! साक्षात् भगवान मेरे आँगन में पधारे। मेरे हृदय के हार पधारे। हृदय के हार आओ। त्रिलोकीनाथ पधारो ! सेवक को पावन करके भव से पार उतारो। ___ अभय - अहो, मेरे नाथ पधारे ! मुझको इस संसार समुद्र से छुड़ाकर मोक्ष में ले जाने के लिए मेरे नाथ पधारे।
चेलना - चलो महाराज ! हम भगवान के दर्शन करने चलें, और भगवान का दिव्य उपदेश प्राप्त कर पावन होवें।
श्रेणिक - हाँ देवी चलो ! सम्पूर्ण नगरी में मंगल भेरी बजवाओ कि सब जन भगवान के दर्शन करने के लिए आयें। लो माली ! यह आपको बधाई का इनाम।
(राजा गले में से हार आदि निकालकर देते हैं और तत्काल ही समस्त प्रजाजनों के साथ बड़े ही धूमधाम से हाथ में पूजा की थाली लेकर प्रभु दर्शन को चले जाते हैं।) चलो चलो, सब हिल-मिल कर आज, महावीर वंदन को जावें। चलो चलो, सब हिल-मिल कर आज, प्रभुजी के वंदन को जावें। गाजे-गाजे जिनधर्म की जयकार, वैभारगिरि पर जावें । - (गाते-गाते जाते हैं, परदे के पीछे जाकर फिर आते हैं। रास्ते में दूसरे अनेक मनुष्य साथ मिल जाते हैं। (परदा ऊँचा होता है और भगवान दिखते हैं।) श्रेणिक - बोलिये, महावीर भगवान की जय !
(सब वंदन करके बैठते हैं। स्तुति करते हैं।) मंगल स्वरूपी देव उत्तम हम शरण्य जिनेश जी। तुम अधमतारण अधम मम लखि मेट जन्म कलेश जी। संसृति भ्रमण से थकित लखि निजदास की सुन लीजिये। सम्यक् दरश वर ज्ञान चारित पथविहारी कीजिये। चेलना - ॐ हीं श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
(थोड़ी देर के लिए एकदम शान्ति छा जाती है।) श्रेणिक - (खड़े होकर) हे प्रभो ! आत्मा की मुक्ति का मार्ग क्या है ? कृपया हमें बताकर कृतार्थ करें।
(परदे में से दिव्यध्वनि की आवाज आती है।) ओ....म्....! द्रव्य-गुण-पर्याय से जो जानते अरहंत को।
वे जानते निज आत्मा दृगमोह उनका नाश हो॥ अहो जीवो ! द्रव्य से, गुण से और पर्याय से अरिहंत भगवान . के स्वरूप को जो जीव जानता है वह आत्मा का वास्तविक स्वरूप जानता है और उसका दर्शन-मोह जरूर क्षय को प्राप्त होता है।
हे जीवो ! आपका आत्मा भी अरिहंत भगवान जैसा ही है। जैसा अरिहंत भगवान का स्वभाव है वैसा ही तुम्हारा स्वभाव है। उस स्वभाव सामर्थ्य को आप पहचानो, उसकी प्रतीति करो। यह ही मुक्ति का मार्ग है। समस्त अरिहंत भगवंतों ने ऐसे ही मार्ग को अपनाकर मुक्ति प्राप्त की है और जगत को भी ऐसा ही मुक्ति के मार्ग का उपदेश दिया है।
हे जीवो ! आप भी पुरुषार्थ से इस मार्ग को अपनाओ।
श्रेणिक-अहो, प्रभो ! आपका दिव्य उपदेश सुनकर हम पावन हो गये हैं, हमारा जीवन धन्य हुआ।
अभय - प्रभो ! इस संसार-समुद्र से मेरी मुक्ति कब होगी?
दिव्यध्वनि - (परदे में से) हे भव्य ! आप अत्यन्त निकट भव्य हो, इस भव में ही आपकी मुक्ति होगी।
अभय - प्रभो ! मेरे पिताजी को मुक्ति कब होगी ? दिव्यध्वनि - (परदे में से) श्रेणिक महाराज को क्षायिक
उहामा।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ सम्यक्त्व हुआ है। उन्होंने अभी तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया है। एक भव बाद ये तीर्थंकर होकर मोक्ष पधारेंगे।
चेलना - अहो ! धन्य-धन्य ! (सब खड़े होकर चले जाते हैं। परदा बन्द होता है।)
सप्तम दृश्य महारानी चेलना और अभयकुमार का वैराग्य (महाराज श्रेणिक बैठे हैं, वहाँ अभयकुमार आता है।)
अभय - पिताजी ! भगवान् की दिव्यध्वनि में जब से मैंने यह सुना है कि मैं इसी भव का मोक्षगामी हूँ, तभी से मेरा मन इस संसार से उठ गया है। मैं अब यह संसार स्वप्न में भी देखूगा नहीं, बाहर के भाव तो अनंत बार किये। अब मेरा परिणमन अन्दर ढलता है। अब तो मैं मुनि होकर आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द का भोग करूँगा। पिताजी ! मुझे स्वीकृति प्रदान करो।
श्रेणिक- अरे कुमार ! ऐसी छोटी उम्र में क्या तुम दीक्षा लोगे? तुम्हारे बिना इस राज्य का कार्यभार व वैभव कौन सँभालेगा ? बेटा! अभी तो मेरे साथ राज्य भोगो, बाद में दीक्षा लेना।
अभय - नहीं-नहीं, पिताजी ! चैतन्य के आनन्द के सिवाय अब और कहीं मेरा मन एक क्षण भी नहीं लगता। अब तो मैं एक क्षण का भी विलम्ब किये बिना आज ही चारित्र दशा को अंगीकार करूँगा।
श्रेणिक - अहो, पुत्र ! धन्य है तेरा वैराग्य और तेरी दृढ़ता। पुत्र ! तेरे वैराग्य को मैं नहीं रोक सकता। तेरी चेलना नाता स्वीकृति दे तो खुशी से जाओ और आत्मा का पूर्ण हित करो। (अब अभय माता चेलना के पास जाता है। चेलनादेवी स्वाध्याय कर रही हैं।)
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___ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ मिथ्यात्व आदिक भाव तो चिरकाल से भाये अरे। सम्यक्त्व-आदिक भाव पर क्षण भी कभीभाये नहीं।
अहो, रत्नत्रय की आराधना करके मैं इस भव-समुद्र से छूटूऐसा धन्य अवसर कब आयेगा ? ___अभय - माता ! आप जैसी आत्महित की मार्गदर्शक माता मुझको मिली यह मेरा धन्य भाग्य है। हे माता ! तुम मेरी अन्तिम माता हो। इस संसार में मैं दूसरी माता बनाने वाला नहीं हूँ। संसार में डूबे हुए इस आत्मा का अब उद्धार करना है। हे माता ! आज ही चारित्रदशा अंगीकार करके मैं समस्त मोह का नाश करूँगा और केवलज्ञान प्रगट करूँगा। इसलिए हे माता ! मुझको आज्ञा प्रदान करो।
चेलना - अहो पुत्र ! धन्य है तेरी भावना को ! जाओ पुत्र, खुशी से जाओ और पवित्र रत्नत्रय धर्म की आराधना करके अप्रतिहत रूप से केवलज्ञान प्राप्त करो। पुत्र ! मैं भी तेरे साथ में ही दीक्षा लूँगी। अब इस भवभ्रमण से बस हो, अब तो इस स्त्री पर्याय को छेदकर मैं भी अल्पकाल में केवलज्ञान प्राप्त करूँगी।
अभय - अहो माता ! आपका वैराग्य धन्य है। चलो, दीक्षा लेने के लिए भगवान के समवशरण में चलें।
(दोनों गाते-गाते भावना करते हैं।) चलो आज श्री वीर जिनचरण में
बनकर संयमी रहेंगे निज ध्यान में। राजगृही नगरी में श्रीजिन विराजे
चलो आज श्री वीर जिनशरण में समवशरण मध्य जिनराज शोभते
ॐ ध्वनि सुनेंगे श्री वीरप्रभु की रहेंगे मुनिवरों के पावन चरण में
चलो आज श्री वीर जिनचरण में
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ छोड़ के परसंग आज दीक्षा धरेंगे
राजपाट छोड़ि के संग वीर रहेंगे वन जंगल में हम विचरण करेंगे
चलो आज श्री वीर जिनचरण में . (गाते-गाते दोनों चले जाते हैं। परदा बन्द होता है।) .
सूत्रधार - (परदे में से) आप सभी इस नाटक द्वारा जैनधर्म की प्रभावना का आदर्श लें और....
भारत के घर-घर चेलना जैसी आदर्श माता बनें। घर-घर अभयकुमार जैसा वैरागी बालक बनें।
घर-घर जैनधर्म का प्रभाव फैले।
जैनशासन सर्वत्र जयवंत वर्ते। बोलो, श्री महावीर भगवान की जय! बोलो, जैनधर्म प्रभावक सर्व सन्तों की जय !
बोलो, जैनधर्म की जय! .
बिना सम्यक्त्व के मानव तेरा जीवन निरर्थक है। अंक बिन सैकड़ों बिंदी का होना जिम निरर्थक है ।।टेक॥ देव गुरु शास्त्र क्या कहते नहीं सुनता फिरे ऐंठा। जन्म घर जैन के पाकर बपौती को भी खो बैठा। अरे तूपद प्रथम पाक्षिक सम्हाला क्यों न अबतक है।बिना। जैन दर्शन समझ करके तुझे सम्यक्त्व लेना था। प्रथम से भी प्रथम तुझको सभी तज ये ही करना था। अरे मौका सुहाना यह मिला तुझको अमोलक है। बिना॥ भिन्नता जीव अरु तन की जिसे अनुभव में आई है। उसी ने मोक्ष मारग में करी सम्यक् कमाई है। 'प्रेम' लौकिक अलौकिक का वही सचमुच में ज्ञायक है।बिना। .
- प्रेमचन्द जैन, वत्सल
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
सुन्दर चित्र कौन? एक राजा ने देश के सबसे चतुर दो चित्रकारों को बुलाया और कहा कि जो ६ माह में सबसे सुन्दर चित्र बनायेगा, उसे मुँह मांगा पुरस्कार दूंगा। राजा ने दोनों चित्रकारों को एक कमरे की आमनेसामने की दीवालों पर चित्र बनाने को कहा तथा दोनों के बीच एक मोटे कपड़े का पर्दा डलवा दिया।
दोनों ने अपना-अपना काम प्रारम्भ कर दिया। एक ने बहुत ही सुन्दर चित्र बनाये।
दूसरा सिर्फ दीवाल को घोंटता रहा, घोंटते-घोंटते उसकी वह दीवाल काँच की तरह चमकने लगी।
६माह बाद राजा दोनों के चित्र देखने आया। बीच का परदा हटा दिया गया। ___ चमकती दीवाल में सामने के चित्र ऐसे झलकने लगे थे, जैसे चित्र दीवाल के बहुत भीतर बनाये गये हों, क्योंकि दीवालों में जितना अन्तराल था, वे चित्र उतने ही भीतर दिखते थे। राजा ने इसी को पुरस्कृत किया; क्योंकि राजा सच्चे चित्रकार की परीक्षा करने हेतु यह प्रतियोगिता आयोजित की थी।
राजा ने पुरस्कार प्रदान करते समय अपने उद्बोधन में कहा कि-इसीप्रकार “जो आत्मा को शुद्ध कर लेता है, उसमें दुनिया के चित्र अपने आप झलकने लगते हैं।"
समता-मुझे पकड़ने वाला स्वयं छूट जाता है। ममता-मुझे पकड़ने वाला स्वयं पकड़ा जाता है।
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
हाय ! मैं मर गया..... जिसप्रकार स्वप्न में मरनेवाला, जागने पर जीवित ही रहता है, उसी प्रकार स्वप्न में हुआ मरण का दुःख भी जागृतदशा में नहीं रहता।
एक मनुष्य गहरी नींद में सो रहा था उसको स्वप्न आया कि 'मैं मर गया हूँ' - इसप्रकार अपना मरण जानकर वह जीव बहुत दुःखी और भयभीत हुआ और जोर-जोर से चिल्लाने लगा- हाय ! मैं मर गया...। तब किसी सज्जन ने उसे जगाया और कहा- अरे भाई! तू जीवित है, मरा नहीं।
जागते ही उसने देखा - 'अरे, मैं तो जिंदा ही हूँ, मरा नहीं। स्वप्न में मैंने अपने को मरा हुआ माना, इसलिए मैं दुःखी हुआ, लेकिन मैं वास्तव में जीवित हूँ।' इसप्रकार अपने को जीवित जानकर वह आनन्दित हुआ। उसे मृत्यु सम्बन्धी जो दुःख था, वह दूर हो गया। अरे, यदि वह मर गया होता तो 'मैं मर गया हूँ- ऐसा कौन जानता ? ऐसा जाननेवाला तो जिवित ही है।
इसप्रकार मोहनिद्रा में सोनेवाला जीव देहादिक के संयोग-वियोग में स्वप्न की भाँति ऐसा मानता है कि मैं जीवित हूँ, मैं मरा हूँ, मैं मनुष्य · हो गया, मैं तिर्यंच हो गया' - ऐसी मान्यता से वह बहुत दु:खी होता है। जब ज्ञानियों ने उसे जगाया/समझाया और जड़-चेतन की भिन्नता बतायी। तब जागते/समझते ही उसे यह भान हुआ कि 'अरे ! मैं तो अविनाशी चैतन्य हूँ और यह शरीर तो जड़ है। मैं इस शरीर जैसा नहीं हूँ शरीर के संयोग -वियोग से मेरा जन्म-मरण नहीं होता।'
ऐसा भान होते ही उसका दुःख दूर हुआ कि - ‘वाह ! जन्म-मरण मेरे में नहीं होता, देह के वियोग से मेरा मरण नहीं होता, मैं तो सदा जीवन्त चैतन्यमय हूँ। मैं मनुष्य या मैं तिर्यंच नहीं हुआ। मैं तो शरीर से भिन्न चैतन्य ही हूँ। यदि मैं शरीर से भिन्न न होता तो शरीर छूटते ही मैं भी समाप्त हो जाता ? मैं तो जाननहार स्वरूप से सदा जीवन्त हूँ।'
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
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ज्ञानवर्द्धक पहेलियों व प्रश्नों के उत्तर
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-११ में प्रकाशित पहेलियों व प्रश्नों के उत्तर इसप्रकार है - १. आत्मा/चेतन/ज्ञान (II) संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व, जीवतत्त्व २. सम्यग्दर्शन
(III) आस्रवतत्त्व, बंधतत्त्व, जीवतत्त्व ३. परमात्मा/ परमाणु
(IV) आस्रवतत्त्व, बंधतत्त्व, जीवतत्त्व ४. अरहंत प्रभु ५. सिद्ध प्रभु (V) अजीवतत्त्व ६. विपुलाचल पर्वत ७. उपाध्याय २३. अयोध्या, सम्मेदशिखर ८. साधु ९. केवलज्ञान १०. गणधरदेव २४. (I) गलत (II) सही ११. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान २५. दो व चार २६. दशरथ और सम्यग्चारित्र
२७. एक ज्ञानवाला १२. कैलाश पर्वत और आदिनाथ २८. अविरतसम्यक्त्व, सयोगकेवली १३. अरहंत १४. सीमंधर भगवान २९. (I) एक (II) एक समय १५. सिद्ध १६. कानजीस्वामी ३०. मोक्ष में, देवगति में, १७. रत्नत्रय
देवगति में, तिर्यंचगति में, १८. (I) पंचमगति (II) पंचमगति ३१. सिद्ध जीव (III) मनुष्यगति (IV) देवगति ३२. वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, (V) देवगति (VI) देवगति पार्श्वनाथ व महावीर – पंचबालयति। (VII) पंचमगति (VIII) पंचमगति ३३. हममें १० और भगवान में ८ (IX) नरकगति (X) देवगति - ३४. (I) चौथे गुणस्थान में (XI) पंचमगति (XII) पंचमगति (II) मिथ्यात्व गुणस्थान में (XIII) मनुष्यगति।
(III) बारहवें गुणस्थान में १९. महावीर स्वामी २०. आत्मा। (IV) तेरहवें गुणस्थान में। २१. अंत में देखो
३५. (I) म (II) वि (III) न २२. (1) मोक्षतत्त्व, जीवतत्त्व . (IV) अ (V) क्ष
पपगात
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ ३६. जीव, संवर, निर्जरा, मोक्ष ४३. (I) प्रवचनसार (II) छहढ़ाला ३७. (I) एक मनुष्य के आत्मा में (III) मोक्षशास्त्र (IV) समयसार बहुत ज्ञान है।
(V) अष्टपाहुड़ (VI) पंचास्तिकाय (II) जीव लक्षण ज्ञान है।
(VII) परमात्मप्रकाश (III) सुख-दुःख आत्मा को होता है। (VIII) षट्खण्डागम ३८. (I) दादा-पोता (II) बैन-बैन
४४. बाहुबलि, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, (III) माँ-बेटा (IV) भाई-भाई
सुधर्माचार्य, मुनिसुव्रतनाथ, नेमिनाथ, (V) चचेरे भाई (VI) ससुर-दामाद
वृषभसेन, कुन्दकुन्द, विमलनाथ, (VII) पिता-पुत्र (VIII) जीजा-साले (IX) तीर्थंकर-गणधर (X) पुत्र-पिता।
ऋषभदेव, भरत चक्रवर्ती, चन्द्रप्रभ, ३९. जीव में - ज्ञान, सुख, दुःख, राग, अजितनाथ, समन्तभद्र, अरनाथ,धर्मनाथ, अस्तित्वगुण, विचार।
मल्लिनाथ, नमिनाथ, अजितनाथ, अजीव में - रोग, शरीर, शब्द, सुमतिनाथ, अभिनन्दननाथ, श्रेयांसनाथ, अस्तित्वगुण, रंग।
पार्श्वनाथ, अनंतनाथ, शान्तिनाथ, वीरसेन, ४०. अभिन्न ४१. भक्त
पूज्यपाद। ४२. (1) दो (II) तीन
४५. पाँचों ज्ञानों में से एक ज्ञान होगा एवं (III) चार मनुष्य गति में, सिद्ध परमेष्ठी मोक्ष गति में।
एक समय में मोक्ष हो जायेगा।
पहेली नं. २१ का उत्तर -
१. दीपावली पर्व २. ज्ञान ३. सम्यग्दर्शन ४. सिद्ध भगवान ५. पाँच पाण्डव मुनि ६. नियमसार ७. समवसरण ८. इन्द्रभूति ९. रत्नत्रय १०. महावीर भगवान
३. महावीर प्रभु का मोक्ष ४. आत्मा का स्वभाव ६. मोक्ष का मूल ८. शरीर बिना सुन्दर वस्तु १. शत्रुजय सिद्धक्षेत्र २. समयसार का भाई ७. धर्मराजा का दरबार ९. गौतम स्वामी का नाम १०. मोक्ष में जाने का विमान ५. सिंह के भव में आत्मज्ञान
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
80 साहित्य प्रकाशन फण्ड ४०१/- रु. देने वाले -
तेजस देवचन्द शाह, हैदरावाद २५१/- रु. देने वाले
ढेलाबाई चैरिटेविल ट्रस्ट, खैरागढ़ ह. शोभा-मोतीलाल जैन, खैरागढ़ श्री ओजस्वी भव्य ह. श्रद्धा जिनेश जैन, खैरागढ़ श्रीमती चन्द्रकला-प्रेमचंद ह. श्रुति अभयकुमार जैन, खैरागढ़ श्री श्वेता-उमेश, वंदना-महेश छाजेड़, खैरागढ़ । झनकारीबाई खेमराज बाफना चैरिटेविल ट्रस्ट, खैरागढ़ श्री कंचनदेवी-पन्नालाल ह. मनोजकुमार गिड़िया, खैरागढ़ ब्र. ताराबेन मैनाबेन जैन, सोनगढ़ सौ. मनोरमा-विनोद कुमार जैन, जयपुर रुनझुन चुनमुन कोथरा भिलाई
एन.एस. लीला चौधरी, भिलाई २०१/- रु. देने वाले -
श्रीमती धर्मिष्ठा-जिनेन्द्र कुमार जैन, दुर्ग सहज नियति ह. श्रीमती समता-अमित जैन, कानपुर
श्रीमती ममता-रमेशचन्द जैन, जयपुर १५१/- रु. देने वाले -
श्रीमती रक्षा-रवीन्द्र कुमार जैन, दुर्ग १०१/- रु. देने वाले -
श्रीमती साधना-संजय ढोसानी, भिलाई प्रीति बैन सुभद्रा बैन, अहमदावाद
अन्याय से उपार्जित धन जबर्दस्ती लाई हुई स्त्री के समान अधिक समय नहीं टिकता। जैसे धनी के गुणों से आकर्षित स्त्री हमेशा रहेगी, वैसे ही न्यायोपार्जित लक्ष्मी अधिक समय तक टिकी रहेगी। नीति वस्त्रों के समान है और धर्म आभूषण के समान है। जैसे कपड़ों के बिना आभूषण शोभा नहीं देते वैसे नीति के बिना धर्म शोभा नहीं देता। - दृष्टि का निधान : पूज्य श्री कानजीस्वामी राप्रपा प्रप
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हमारे प्रकाशन १.चौबीस तीर्थंकर महापुराण (हिन्दी)
५०/[५२८ पृष्ठीय प्रथमानुयोग का अद्वितीय सचित्र ग्रंथ ] २.चौबीस तीर्थंकर महापुराण (गुजराती)
४०/[४८३ पृष्ठीय प्रथमानुयोग का अद्वितीय सचित्र ग्रंथ ] ३.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १)
७/४.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग २) ५.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग ३)
७/(उक्त तीनों भागों में छोटी-छोटी कहानियों का अनुपम संग्रह है।) ६.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग ४) महासती अंजना १०/७.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग ५) हनुमान चरित्र १०/८.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग ६)
- ७/(अकलंक-निकलंक चरित्र) ९.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग ७) (अनुबद्धकेवली श्री जम्बूस्वामी) १०.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग ८) (श्रावक की धर्मसाधना) ११.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग ९) (तीर्थंकर भगवान महावीर) १२.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १०) कहानी संग्रह १३.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग ११) कहानी संग्रह १४.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १२) कहानी संग्रह १५.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १३) कहानी संग्रह १६.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १४) कहानी संग्रह १७.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १५) कहानी संग्रह १८.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १६) नाटक संग्रह १९.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १७) नाटक संग्रह २०.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १८) कहानी संग्रह २१.जैनधर्म की कहानियाँ (भाग १९) कहानी संग्रह २२.अनुपम संकलन (लघु जिनवाणी संग्रह) २३.पाहुड़-दोहा, भव्यामृत-शतक व आत्मसाधना सूत्र ५/२४.विराग सरिता (श्रीमद्जी की सूक्तियों का संकलन) २५.लघुतत्त्वस्फोट (गुजराती) २६.भक्तामर प्रवचन (गुजराती) २७.अपराध क्षणभर का (कॉमिक्स)
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________________ हमारे प्रेरणा स्रोत : ब्र. हरिलाल अमृतलाल मेहता जन्म वीर संवत् 2451 पौष सुदी पूनम जैतपुर (मोरबी) सत्समागम वीर संवत् 2471 (पूज्य गुरुदेव श्री से) राजकोट देहविलय 8 दिसम्बर, 1987 पौष वदी३, सोनगढ़ ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा वीर संवत् 2473 फागण सुदी 1 (उम्र 23 वर्ष) पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के अंतवासी शिष्य, शूरवीर साधक, सिद्धहस्त, आध्यात्मिक, साहित्यकार ब्रह्मचारी हरिलाल जैन की 19 वर्ष में ही उत्कृष्ट लेखन प्रतिभा को देखकर वे सोनगढ़ से निकलने वाले आध्यात्मिक मासिक आत्मधर्म (गुजराती व हिन्दी) के सम्पादक बना दिये गये, जिसे उन्होंने 32 वर्ष तक अविरत संभाला। पूज्य स्वामीजी स्वयं अनेक बार उनकी प्रशंसा मुक्त कण्ठ से इस प्रकार करते थे "मैं जो भाव कहता हूँ, उसे बराबर ग्रहण करके लिखते हैं, हिन्दुस्तान में दीपक लेकर ढूँढने जावेंतो भी ऐसा लिखने वाला नहीं मिलेगा...।" आपने अपने जीवन में करीब 150 पुस्तकों का लेखन/सम्पादन किया है। आपने बच्चों के लिए जैन बालपोथी के जो दो भाग लिखे हैं, वे लाखों की संख्या में प्रकाशित हो चुके हैं। अपने समग्र जीवन की अनुपम कृति चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों का महापुराण-इसे आपने 80 पुराणों एवं 60 ग्रन्थों का आधार लेकर बनाया है। आपकी रचनाओं में प्रमुखतः आत्म-प्रसिद्धि, भगवती आराधना, आत्म वैभव, नय प्रज्ञापन, वीतराग-विज्ञान (छहढ़ाला प्रवचन, भाग १से ६),सम्यग्दर्शन (भाग १से८), अध्यात्म-संदेश, भक्तामर स्तोत्र प्रवचन, अनुभव-प्रकाश प्रवचन, ज्ञानस्वभाव-ज्ञेयस्वभाव, श्रावकधर्मप्रकाश, मुक्ति का मार्ग, मूल में भूल, अकलंक-निकलंक (नाटक), मंगल तीर्थयात्रा, भगवान ऋषभदेव, भगवान पार्श्वनाथ, भगवान हनुमान, दर्शनकथा, महासती अंजना आदि हैं। २५००वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर किये कार्यों के उपलक्ष्य में, जैन बालपोथी एवं आत्मधर्म सम्पादन इत्यादि कार्यों पर अनके बार आपको स्वर्ण-चन्द्रिकाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। जीवन के अन्तिम समय में आत्म-स्वरूप का घोलन करते हुए समाधि पूर्वक "मैं ज्ञायक हँ...मैं ज्ञायक हँ" की धुन बोलते हुए इस भव्यात्मा का देह विलय हुआ-यह उनकी अन्तिम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता थी। मुद्रण व्यवस्था: जैन कम्प्यूटर्स, जयपुर मो. 09414717816, ई-मेल: jaincomputers74@yahoo.co.in