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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२
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मंगल कार्य आपने मुझे सौंपा। इस मंगल कार्य के लिए कितनी सोने की मोहरें खर्च करने की आपकी इच्छा है ?
चेलना- दीवानजी ! कम से कम एक करोड़ सोने की मोहरें तो जरूर ही खर्च करने की आपके लिए छूट है। जिनमन्दिर की शोभा में, सुन्दरता में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रहनी चाहिए और प्रतिष्ठा महोत्सव तो ऐसा उत्कृष्ट और भव्य होना चाहिए कि सारा नगर जैनधर्म के जय-जयकार से गुंजायमान हो उठे। इस कार्य के लिए राज्य के भंडार खुले है ।
दीवानजी - जो आज्ञा, महारानी (दीवानजी चले जाते हैं और शीघ्र ही मन्दिर निर्माण का कार्य तेजी से आरम्भ करा देते हैं ।) तृतीय - दृश्य
रानी द्वारा परीक्षा होने पर एकान्ती गुरु क्षुब्ध ( मठ में एकान्ती गुरु आसन पर बैठे हैं ।)
( नेपथ्य से एकान्ती गुरु) एकान्तं शरणं गच्छामि । एकान्तं शरणं गच्छामि । एकान्तं शरणं गच्छामि । (श्रेणिक का प्रवेश )
श्रेणिक - नमोऽस्तु महाराज !
एकान्ती गुरु- पधारो राजन् ! चेलनाजी के क्या समाचार हैं ? श्रेणिक महाराज ! चेलना बहुत दिनों से उदास थी, कल ही मैंने उसको जैनधर्म के लिए जो करना हो वह करने की छूट दे दी है। एकान्ती गुरु- क्या चेलना को आपने जैनधर्म की छूट दे दी ?
श्रेणिक - जी हाँ ! और दूसरा समाचार यह है कि मैंने चेलना पास आपकी खूब प्रशंसा की, जिससे प्रभावित होकर उसने आपको भोजन का निमंत्रण दिया ।
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एकान्ती गुरु- बहुत अच्छा राजन् ! हम जरूर आयेंगे और चेलना को समझाकर एकान्त धर्म का भक्त बनाएँगे ।