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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-1 .१२
श्रेणिक - हाँ महाराज ! पर बराबर ध्यान रखना, क्योंकि महारा धर्मश्रद्धा बहुत अडिग है । कहीं हम उसके जाल में नहीं फंस जाएँ। एकान्ती गुरु - अरे राजन् ! इसमें क्या बड़ी बात है ? एकान्ती बनाना तो हमारे बायें हाथ का खेल है ।
श्रेणिक बहुत अच्छा महाराज ! ( राजा श्रेणिक चले जाते हैं ।) एकान्ती गुरु - (हर्ष से) आज तो महारानी के यहाँ भोजन के लिए जाना है।
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एकान्ती गुरु का शिष्य - हाँ हाँ गुरुदेव ! उसे समझाने का यह अच्छा अवसर है। (अभयकुमार की बहन आती है।)
बालिका - पधारिये महाराज ! माताजी आपको भोजन के लिए बुला रही हैं।
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एकान्ती गुरु हाँ चलिये ।
(एकान्ती गुरु-शिष्य जाते हैं। थोड़ी देर में अन्दर का परदा खुलता है, वहाँ चेलना और सखी बैठी हुई है।)
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चेलना - सखी ! आज तो ऐसी युक्ति करना है कि एकान्ती गुरुओं की सर्वज्ञता का अभिमान चूर-चूर हो जाए ।
सखी बहन ! आपने कोई योजना विचारी है ?
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आयेंगे।
चेलना - (कुछ धीरे से) हाँ सखी ! अभी एकान्ती गुरु मैं जब तुम्हें संकेत करूँ, तब तुम गुप-चुप जाकर प्रत्येक की एक-एक मोचड़ी छिपा देना ।
सखी
अच्छा माता ! एकान्ती गुरु आते ही होंगे।
( बालिका और एकान्ती गुरु आते हैं। अभयकुमार का पीछे से प्रवेश )
सखी - पधारो महाराज, यहाँ विराजो। (एकान्ती गुरु-शिष्य बैठते
हैं ।)