________________
M
AM
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ चेलना- हाँ, बेटा ! इसलिए ही मुझे यहाँ नहीं रुचता है।
जिनधर्मविनिर्मुक्तो मा भवेत्वक्रवर्त्यपि।
स्यात्चेटोऽपि दरिद्रोऽपिजिनधर्मानुवासितः॥ अभय-इसका अर्थ क्या है माता !
चेलना- सुनो ! इसका आशय है कि हे प्रभु ! जिनधर्म के बिना तो मुझे चक्रवर्ती पद भी नहीं चाहिए, भले ही जिनधर्म सहित दरिद्री हो जाऊँ, क्योंकि इस चक्र- वर्ती पद से तो वह दरिद्र सेवक अच्छा है, जो जैन धर्म के सानिध्य में वास करता हो। अभय- सत्य है, जैनधर्म के सिवाय अन्य कोई धर्म शरणरूप नहीं है।
चेलना- महाराज स्वयं भी एकान्तमत के अनुयायी हैं। इस राज्य में कहीं जैनधर्म के पालनकर्ता दिखते नहीं हैं। हे माता! हे पिता! आपने बाल्यकाल में जिनेन्द्रभक्ति के और तत्त्वज्ञान के जो पवित्र संस्कार हमको दिए हैं, मुझे वे ही अभी शरण रूप हैं।
अभय-माता! आपके पिता चेटक महाराज तो जैनधर्मी के सिवाय दूसरे किसी से अपनी पुत्री का ब्याह रचाते ही नहीं।
चेलना- पिताजी को तो अभी खबर ही नहीं होगी कि मैं कहाँ हूँ ? पिताजी ने जो जैनधर्म के संस्कार डाले हैं, उसके बल से अब तो मैं ही महाराज को जैन बनाऊँगी और अपने जैनधर्म की शोभा बढ़ाऊँगी। .. अभय- धन्य माता, आपके प्रताप से ऐसा ही हो। सारे राज्य में जैनधर्म की प्रभावना हो जाए।