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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ ।
तुम्हारे दर्श बिन स्वामी ! मुझे नहिं चैन पड़ती है। छवि वैराग्य तेरी सामने आँखों के फिरती है।
(सखी का प्रवेश) चेलना- सखी ! अभयकुमार को बुलाओ। सखी- जी माता ! (सखी जाती है और अभयकुमार सहित लौट आती है।) अभय- माता प्रणाम ! (आश्चर्य से) आप बेचैन क्यों हो?
चेलना- (व्यथा से) पुत्र अभय ! कहाँ जैनधर्म की प्रभावना से भरपूर वैशाली नगरी और कहाँ यह राजगृही नगर ! यहाँ तो जहाँ देखो वहाँ एकान्त, एकान्त और एकान्त। जैनधर्म के अभाव में मुझे यहाँ कहीं भी चैन नहीं है। __ अभय-सत्य बात है, माता! अहो, वह देश धन्य है, जहाँ तीर्थंकर भगवान स्वयं विराज रहे हों। अरे रे ! यहाँ तो जिनेन्द्र भगवान के दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं।
चेलना- तुम सत्य कहते हो, पुत्र ! ना ही यहाँ कोई जिनमंदिर दिखते हैं और ना ही दिखते हैं कोई वीतरागी मुनिराज। हाय ! मैं ऐसे धर्महीन स्थान में कैसे आ गई ? . अभय-माता! अभी सारे भारत में बिहार, बंगाल, उज्जैन, गुजरात, मारवाड़, सौराष्ट्र आदि अनेक राज्यों में जैनधर्म की प्रभावना हो रही है, परन्तु अपने इस राज्य में जगह-जगह एकान्त धर्म का ही प्रचार एवं प्रभाव है।
नोट- अभयकुमार चेलना का पुत्र नहीं है, दूसरी रानी का पुत्र है, परन्तु धार्मिक स्नेह होने से दोनों में सगे माता-पुत्र जैसा ही प्रेम है। इस नाटक में भगवान महावीर की दीक्षा के समाचार का प्रंसग भी संवाद की अनुकूलता को लक्ष्य में रखकर आगे-पीछे रखा गया है। अतः इतिहासिज्ञ पुरुषों से हमारा निवेदन है कि वे इस बात को लक्ष्य में रखें।