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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ राजन् अविरति हैं। मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं पंच परमेष्ठी के अलावा और किसी को नमस्कार नहीं करता।
हे राजन् ! लोक व्यवहार में धर्म नही देखा जाता हैं, व्यर्थ में ही कषाय बढ़ाने से क्या फायदा है ?
हे दूत ! जो होना होगा वह होगा, मैं प्रतिज्ञा से बढ़कर लोक व्यवहार को नहीं मानता। आप अपने स्थान को पधारिये।
विद्वानदूत शीघ्र ही किष्किंधापुरी से प्रस्थान करके कुछ ही दिनों में लंकापुरी पहुँच गया। राजा साहब के पास पहुँचकर निवेदन किया - हे महाराज! आपके सब उपकारों का उपकार मानते हुए बालि महाराजा आपको अपनी बहन को सहर्ष देने को तैयार हैं, परन्तु नमस्कार करने को तैयार नहीं हैं।
हे दूत ! नमस्कार न करने का क्या कारण है ?
हे राजन् ! महाराजा बालि ने श्रीगुरु के पास पंच परमेष्ठी के अलावा किसी और को नमस्कार न करने की प्रतिज्ञा अंगीकार की है। धार्मिक प्रतिज्ञा के सामने कुछ भी कहना मुझे उचित नहीं लगा।
बस फिर क्या था, लंकेश तो भुजंग के समान कुपित हो उठे, तब रावण के मंत्रीगण एकदम गम्भीर हो गये। कुछ देर विचार करने के बाद मंत्रीगणों ने राजा साहब से निवेदन किया -
हे प्राणाधार ! आप भी धार्मिक व्यक्ति हो, पूजा-पाठ, दया-दान, व्रत आदि करते हो, प्रतिदिन जिनवाणी का स्वाध्याय करते हो, अतः इतना तो आप भी जानते हो कि श्रीगुरुओं से ली हुई प्रतिज्ञायें चाहे वह छोटी हों या बड़ी, उनका जीवनपर्यंत निर्दोष रूप से पालन करना चाहिए। प्राणों की कीमत पर भी व्रतभंग नहीं करना चाहिए। किसी की या अपनी प्रतिज्ञा को भंग करने में महापाप लगता है।