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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
18 ___ अतः हम लोगों की सलाह है कि बालि नरेश आपको अपनी बहन देने को तो तैयार ही हैं और जो अपनी बहन देगा तो आपका आदर सत्कार/साधुवाद तो करेगा ही करेगा, मात्र मस्तक झुकाना ही नमस्कार नहीं है। अपने हृदय में किसी को स्थान देगा, आदर देना भी तो नमस्कार ही है। और बालि नरेश के हृदय में आपके प्रति आदर तो है ही। अतः आप हम लोगों की बात पर गम्भीरता से विचार कीजिये, एकदम क्रोध में आ जाना राज्य के हित में नहीं होता राजन्।
भैंस के सामने बीन बजाना, मूर्ख को शिक्षा देना तथा सर्प को दूध पिलाना जैसे व्यर्थ है। वैसे ही मंत्रियों की योग्य सलाह भी लंकेश पर. कुछ असर नहीं कर सकी, आखिर क्रोध के पास विवेक रहा ही कब है जो कुछ असर हो, वह तो सदा अन्धा ही होता है, सदा असुर बनकर भभकना उसकी प्रकृति ही है। जब विनाश का समय आता है तब बुद्धि भी विपरीत हो जाती है। अंततोगत्वा रावण ने साम, दाम, दण्ड और भेद सभी प्रकार से किष्किंधापुरी को घेर लिया।
किष्किंधापुरी के घिर जाने के समाचार जब राजा बालि ने सुने, तब वे भी युद्ध के लिये तैयार हो गये। तब बालि राजा के मंत्रियों ने बहुत समझाया। महाराज ! आपके वे उपकारी हैं। आपके पास इतनी सेना भी नहीं है। इतने अस्त्र-शस्त्र भी नहीं हैं। रावण तो चार अक्षोहणी सेना का अधिपति है, उसके सामने अपनी सेना क्या है ? उपकारियों का अपकार करने वाला राजा लोक में कृतघ्नी गिनाया जाता है, इसलिए हे राजन् ! हम लोगों की बात पर आप गम्भीरता से विचार कीजिए।
कितना भी विवेकी राजा क्यों न हो, परन्तु जब कोई अन्य राजा उसे युद्धस्थल पर ललकार रहा हो तब सामने वाला शान्त नहीं बैठ सकता, यह उसकी भूमिकागत कषायों का प्रताप होता है। अतः महाराजा बालि ने भी मंत्रियों की एक भी न सुनी और अपनी सम्पूर्ण सेना सहित दशानन का सामना करने को युद्धस्थल में आ गया।