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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
चेलना- महाराज ! आपकी इस राजगृही में मुझे कहीं चैन नहीं पड़ता।
श्रेणिक- (आश्चर्य से) अरे, यहाँ आपको क्या दुःख है ? यह राजपाट, यह महल, नौकर-चाकर सब आपके ही हैं। आप अपनी इच्छानुसार इनका उपभोग करो।
चेलना-राजन् ! मुझे जो सर्वाधिक प्रिय है, उस जैनधर्म के बिना इस राजपाट का मैं क्या करूँ ! संसार में जैनधर्म के सिवाय दूसरा कोई धर्म सत्य नहीं है। जैसे मुर्दे के ऊपर श्रृंगार नहीं शोभता, वैसे हे राजन् जैनधर्म बिना यह आपका राजपाट नहीं शोभता। जैनधर्म बिना यह महाराजा का पद व्यर्थ है। मुझे जैनधर्म सिवाय कुछ भी प्रिय नहीं है।
श्रेणिक-सुनो देवी ! आप जैनधर्म को ही उत्तम समझ रही हो, परन्तु भूल कर रही हो। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि जगत में एकान्तमत ही महाधर्म है। यह राजपाट, लक्ष्मी आदि मुझे एकान्तमत के प्रताप से ही मिली है।
चेलना-नहीं-नहीं राजन् ! जिनेन्द्र भगवान सर्वज्ञ हैं, उन सर्वज्ञ भगवान का कहा हुआ अनेकान्तमय जैनधर्म ही परम सत्य है। इसके सिवाय जगत में दूसरा कोई सत्य धर्म है ही नहीं। स्वामी ! यह राजपाट मिला, उससे आत्मा की कोई महत्ता नहीं, आपका एकान्तमत तो एकान्त क्षणिकवादी है एकान्ती गुरु सर्वज्ञता के अभिमान से दग्ध हैं। जबकि अरिहंतदेव के अतिरिक्त मोक्षमार्ग का प्रणेता इस जगत में कोई है ही नहीं। राजन् ! इस पावन जैनधर्म के अंगीकार करने से ही आपका कल्याण होगा। (अभयकुमार का प्रवेश)
श्रेणिक- देवी! यह चर्चा छोड़ो और इस राज्य में आप इच्छानुसार जैनधर्म का अनुसरण करो.....जिनमंदिर बनावाओ, जिनेन्द्रपूजन और महोत्सव कराओ, आपके लिए ये राज्य भंडार खुले हैं, इसलिए आप