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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
एकान्ती गुरु - महारानीजी ! आज यहाँ आने से हमको बहुत आनन्द हुआ और आपकी इतनी धर्मश्रद्धा देखकर तो और भी विशेष आनंद हुआ। ___अभय - (व्यंग्य से) क्यों महाराज ? आपको यहाँ भोजन कराया, इसलिए क्या आप ऐसा मानते हो कि अब मेरी माताजी एकान्ती गुरु की अनुयायी बन गई हैं ? ... एकान्ती गुरु- हाँ, कुँवरजी ! हमको विश्वास है कि चेलना देवा जरूर एकान्तमत की भक्त बन जाएँगी और सम्पूर्ण भारत में एकान्ती गुरु की विजय का डंका बज जायेगा।
चेलना - (तेज स्वर में) अरे महाराज! आपकी यह बात स्वप्न में भी सच बनने वाली नहीं है। आपके जैसे लाखों एकान्ती साधु आ जाएँ तो भी मुझको जैनधर्म से नहीं डिगा सकते।
एकान्ती गुरु- महारानीजी ! आप जानती हो कि श्रेणिक महाराज भी एकान्ती गुरु के भक्त हैं। यदि आप एकान्तधर्म स्वीकार करोगी तो श्रेणिक महाराज आपके ऊपर बहुत प्रसन्न होवेंगे और राज्य की सम्पूर्ण सत्ता आपके ही हाथ में रहेगी।
चेलना- (तेज स्वर में) क्या राजसत्ता के लोभ में, मैं मेरे जैनधर्म को छोड़ दूँ। आप ध्यान रखिए, यह कभी भी संभव नहीं होगा।
अभय- (तेज स्वर में) महाराज ! यह राज्य तो क्या ? तीनलोक का साम्राज्य मिलता हो तो वह भी हमारे जैनधर्म के सामने तो तुच्छ ही है। तीनलोक का राज्य भी हमको जैनधर्म से डिगाने में समर्थ नहीं, तो आप क्या डिगा सकते हैं ? ।
एकान्ती गुरु- महारानीजी ! हम जानते हैं कि आप महाचतुर और बुद्धिमान हो यदि आप जैसे समर्थजन जैनधर्म को छोड़कर हमारे अनुयायी बने तो सम्पूर्ण देश में हमारी कीर्ति फैल जाएगी, इसलिए आप