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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ की पहचान हुई है और परम-पावन जैनधर्म की प्राप्ति हुई है। श्री जिनेन्द्र भगवान का शासन ही इस संसार में शरणभूत है। अभी तक अज्ञान में मैंने ऐसे पवित्र जैनधर्म का अनादर किया, उसका मुझको बहुत पश्चाताप हो रहा है। अब मैंने एकान्तधर्म को छोड़कर जैनधर्म को स्वीकार किया है। आज से सर्वज्ञ भगवान ही मेरे इष्टदेव हैं और वीतरागी निग्रंथ मुनिराज ही मेरे गुरु हैं। आज से राजधर्म भी जैनधर्म ही रहेगा और राजमहल के ऊपर जैनधर्म का ही झंडा फहरायेगा। (झंडा हाथ में लेकर ऊँचा करते हैं, पुष्पवृष्टि होती है, बाजे बजते हैं।) .
सभाजन - धन्य हो ! धन्य हो महाराज ! आप धन्य हो ! (एकसाथ हर्षनाद)
चेलना - (खड़ी होकर) धर्मप्रेमी बन्धुओ ! महाराज ने जैनधर्म के स्वीकारने की सूचना दी है। उससे मुझको अपार हर्ष हो रहा है। इस जगत में कल्याणकारी एक जैनधर्म ही है। इस घोर संसार में सज्जनों को शरणभूत एकमात्र यह जैनधर्म ही है। हे भव्यजीवो ! यदि आप इस भव-भ्रमण के दुःख से थक चुके हो और आत्मा की मोक्षदशा प्रकट करना चाहते हो तो इस सर्वज्ञ प्रणीत जैनधर्म की शरण में रहो।
दीवानजी – (खड़े होक) महाराज और महारानीजी ने इस जैनधर्म सम्बन्धी जो सूचना दी है, उससे मुझको अत्यन्त आनन्द हो रहा है। अब इस संसार-समुद्र से छूटने के लिए मैं भी अत्यन्त उल्लास पूर्वक जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ। अपने महाराज ने अनेक प्रकार से परीक्षा करके जैन धर्म को स्वीकार किया है, इसलिए समस्त प्रजाजन भी स्वयं आत्महित के लिए इस जैनधर्म को स्वीकार करो। ऐसी मेरी अन्त:करण की भावना है। सैनिक- (हाथ जोड़कर) महाराज ! मैं जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ।