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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ ही, अतः उनके अतुल बल का तो कहना ही क्या था, दशानन को बन्दी बनाना उनके लिये चुटकियों का खेल था। ___अरे अर्द्धचक्री, चार अक्षोहणी सेना का अधिपति क्षणमात्र में बन्दी बना लिया गया। कोई शरणदाता नहीं होने पर भी अज्ञानी जीव परद्रव्य को ही अपना शरणदाता मानकर दुःख के समुद्र में जा गिरता है। इस लोक में जहाँ-तहाँ जो हार नजर आती है, वह सब संसार शिरोमणि मिथ्यात्व बादशाह एवं उसकी सेना कषाय का ही प्रताप है। धन-सम्पति, अस्त्र-शस्त्र, हाथी-घोड़े, रथ-प्यादे एवं सेना की हीनाधिकता हारजीत का कारण नहीं है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद है।
निकट भव्यजीव के लिए युद्ध के अथवा युद्ध में विजय के नगाड़े संसार-देह-भोगों से विरक्ति/वैराग्य का कारण बन जाते हैं। स्वभाव अक्षयनिधि से भरपूर शाश्वत पवित्र तत्त्व है और जड़ सम्पदा क्षणभंगुर एवं अशुचि है। __ जिनागम में पार्श्वनाथ और कमठ के, सुकमाल और श्यालनी के, सुकौशल और सिंहनी के, गजकुमार और सोमिल सेठ के इत्यादि अनेक उदाहरणों से प्रसिद्ध है कि वैराग्य की सदा जीत होती है और मिथ्यात्वकषाय की सदा हार होती है, मोह-राग-द्वेष के वशीभूत होकर चक्रवर्ती भी नरक में गये और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना करने वाले सिंह और हाथी भी मुक्तिपथ में विचरण करके मुक्ति को प्राप्त हुए।
बन्दी बने रावण को अन्दर ही अन्दर कषाय प्रज्ज्वलित होती जा रही है, उसके हृदय को वैरागी बालि महाराज ने पढ़ लिया था, अतः परम करुणावंत महाराजा बालि ने रावण को बंधन मुक्त करते हुए क्षमा किया और अपने भाई सुग्रीव का राज्य तिलक करके उसे रावणाधीन करके स्वयं ने वन की ओर प्रस्थान किया; क्योंकि उन्हें तो अब चैतन्य की परमशान्ति की ललक जाग उठी थी, वे तो अपने अतीन्द्रिय आनन्द