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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ इतनी गर्मी में भी ये गुरुवर हमारी शीतल पवन की भी अपेक्षा नहीं करते।
कितने दिनों से ये संत यहाँ विराजमान हैं, न किसी से कुछ बोलते, नचलते, न खाते, न पीते, न हिलते, बस ध्यानमग्न ही अकृत्रिमबिम्बवत् स्थित हैं। बालि मुनिराज का महाबलवानपना आज सचमुच जाग उठा है, क्षायिक सम्यक्त्व उनकी सेना का सेनापति है और अनन्तगुणों की विशुद्धिरूप सेना शुक्लध्यान द्वारा श्रेणीरूप बाणों की वर्षा कर रही है, अनन्त आत्मवीर्य उल्लसित हो रहा है, केवलज्ञान लक्ष्मी विजयमाला लेकर तैयार खड़ी है, इसी से मोह की समस्त सेना प्रतिक्षण घटती जा रही है। अरे, देखो....देखो ! प्रभु तो शुद्धोपयोग रूपी चक्र की तीक्ष्ण धार से मोह को अस्ताचल की राह दिखाने लगे। क्षपकश्रेणी में आरूढ़ हो अप्रतिहतभाव से आगे बढ़ते-बढ़ते आठवें....नौवें....दसवेंगुणस्थान में तो लीलामात्र में पहुँच गये। अहो ! अब शुद्धोपयोग की उत्कृष्ट छलांग लगाते ही मुनिराज पूर्ण वीतरागी हो गये, प्रभु हो गये।
अहा ! वीतरागता के अति प्रबलवेग को बर्दाश्त करने में असमर्थ ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय तो क्षणमात्र में भाग गये। अरे, वे तो तत्त्व विहीन हो ही गये। अब अनन्त कलाओं से केवलज्ञान सूर्य चमक उठा....अहा! अब नृपेश परमेश बन गये, संत भगवंत हो गये, अल्पज्ञ सर्वज्ञ हो गये, अब वे बालि मुनिराज अरहंत बन
ani गये. णमो अरहंताणं।'
इन्द्रराज की आज्ञा से तत्काल ही कुबेर ने गंधकुटी की रचना की, जिस पर प्रभु अन्तरीक्ष विराजमान हैं, शत इन्द्रों ने प्रभु को नमन कर केवलज्ञान की पूजा की।