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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ धर्म की वृद्धि हो। परिणाम का पलटना यही सच्चा प्रायश्चित्त है, राजन्! तुम्हारा धन्य भाग्य है जो कि ऐसे परम पावन जैनधर्म की प्राप्ति हुई। अब सर्व प्रकार से उसकी आराधना और प्रभावना करना।
श्रेणिक-प्रभो! आपने मेरा उद्धार किया है, आज मेरा नया जन्म हुआ है। नाथ! अब मेरे सम्पूर्ण राज्य में जैनधर्म का ही झंडा फहरायेगा, जगह-जगह जिनमन्दिर होंगे, इस महान जैनधर्म को छोड़कर दूसरे किसी अन्य धर्म का मैं स्वप्न में भी आदर नहीं करूंगा।
चेलना-(हर्ष से) प्रभो! आज हमारे आनन्द कापार नहीं। आपके प्रताप से जैनधर्म की जय हुई। प्रभो ! मुझको यह बतावें कि श्रेणिक महाराज की मुक्ति कब होगी ?
मुनिराज - तुमने उत्तम प्रश्न पूछा है। सुनो ! कुछ ही समय बाद इस राजगृही नगरी में त्रिलोकीनाथ महावीर भगवान पधारेंगे, उस समय प्रभुजी के चरण-कमल में श्रेणिक महाराज क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट करेंगे। इतना ही नहीं तीर्थंकर भगवान के चरणकमल में उन्हें तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति का बंध होगा और वे आने वाली चौबीसी में भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थकर होकर मोक्ष पायेंगे।
चेलना - अहो नाथ ! आपके श्रीमुख से मंगल बात जानकर हमारा आत्मा हर्ष से नाच उठा है।
श्रेणिक - धन्य प्रभो ! आपके श्रीमुख से मेरे मोक्ष की बात सुन कर मेरा आत्मा आनन्द से उछल गया है। प्रभो! मानो मेरे हाथ में मोक्ष आ गया हो- ऐसा मुझको आनन्द होता है। ___ अभय-माता ! अन्त में आपकी भावना सफल हुई और जैनधर्म की जय हुई, जिससे मुझको अपार आनन्द हुआ है।
(जब दीवानजी ने यह समाचार सुना कि महाराज और महारानी आदिजंगल में गये हैं। तब वे भी जंगल की ओर चल दिये और वहाँ पहुँच गये, जहाँ सभी बैठे हुए थे।)