Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 71
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२ सैनिक 69 ( हाथ जोड़कर) मैं भी जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ । (एकान्ती गुरु आते हैं ।) एकान्ती - (हाथ जोड़कर, गद्गद् भाव से) महाराज ! हमको क्षमा करो। हमने अभी तक दंभ करके आपको ठगा । अरे रे ! पवित्र जैनधर्म की निंदा करके हमने घोर पाप का बंध किया। राजन् ! अब हमें हमारे पापों का पश्चाताप हो रहा है। हमारे पापों को क्षमा करो। हमारा उद्धार करो। अब हम जैनधर्म की शरण लेते हैं। - ( श्रेणिक राजा चेलना के सामने देखते हैं ।) चेलना - महाराज ! अब आपको इस सत्य की सच्ची पहिचान हुई है, यह आपका सद्भाग्य है। जैनधर्म तो पावन है। इसकी शरण में आये पापी प्राणियों का भी उद्धार हो जाता है। एकान्ती - (हाथ जोड़कर) देवी ! हमारे अपराध क्षमा करो। हम भ्रम में थे। आपने ही हमारा उद्धार किया है । कुमार्ग से छुड़ाकर आपने ही हमको सच्चे मार्ग में स्थापित किया है। माता ! आपका उपकार हम कभी नहीं भूलेंगे । ( मंच पर नगरसेठ आता है ।) दीवानजी - लो, ये नगरसेठ भी पधार गये । श्रेणिक - पधारो, नगरसेठ ! पधारो ! - नगरसेठ • महाराज ! मैं एक मंगल बधाई देने आया हूँ। चेलना माता के प्रताप से आपने जैनधर्म को अंगीकार किया, इस समाचार से सम्पूर्ण नगरी में आनन्द फैल गया है, सम्पूर्ण नगरी जैनधर्म के जयकारे से गुंजायमान हो रही है। महाराज ! मुझको यह बताते हुए बहुत आनन्द हो रहा है कि सम्पूर्ण नगरी के समस्त प्रजाजन जैनधर्म अंगीकार करने को तैयार हो गए हैं। आज से मैं और समस्त प्रजाजन जैनधर्म को स्वीकार करते हैं।

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