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___ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ मिथ्यात्व आदिक भाव तो चिरकाल से भाये अरे। सम्यक्त्व-आदिक भाव पर क्षण भी कभीभाये नहीं।
अहो, रत्नत्रय की आराधना करके मैं इस भव-समुद्र से छूटूऐसा धन्य अवसर कब आयेगा ? ___अभय - माता ! आप जैसी आत्महित की मार्गदर्शक माता मुझको मिली यह मेरा धन्य भाग्य है। हे माता ! तुम मेरी अन्तिम माता हो। इस संसार में मैं दूसरी माता बनाने वाला नहीं हूँ। संसार में डूबे हुए इस आत्मा का अब उद्धार करना है। हे माता ! आज ही चारित्रदशा अंगीकार करके मैं समस्त मोह का नाश करूँगा और केवलज्ञान प्रगट करूँगा। इसलिए हे माता ! मुझको आज्ञा प्रदान करो।
चेलना - अहो पुत्र ! धन्य है तेरी भावना को ! जाओ पुत्र, खुशी से जाओ और पवित्र रत्नत्रय धर्म की आराधना करके अप्रतिहत रूप से केवलज्ञान प्राप्त करो। पुत्र ! मैं भी तेरे साथ में ही दीक्षा लूँगी। अब इस भवभ्रमण से बस हो, अब तो इस स्त्री पर्याय को छेदकर मैं भी अल्पकाल में केवलज्ञान प्राप्त करूँगी।
अभय - अहो माता ! आपका वैराग्य धन्य है। चलो, दीक्षा लेने के लिए भगवान के समवशरण में चलें।
(दोनों गाते-गाते भावना करते हैं।) चलो आज श्री वीर जिनचरण में
बनकर संयमी रहेंगे निज ध्यान में। राजगृही नगरी में श्रीजिन विराजे
चलो आज श्री वीर जिनशरण में समवशरण मध्य जिनराज शोभते
ॐ ध्वनि सुनेंगे श्री वीरप्रभु की रहेंगे मुनिवरों के पावन चरण में
चलो आज श्री वीर जिनचरण में