Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 29
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ ___27 अब थोड़ा दशानन/लंकेशनृप की दशा का भी अवलोकन करते हैं। राजाओं की तो स्वाभाविक प्रकृति ही ऐसी होती है कि नव निधानों में से जहाँ जो निधान दिखा कि बस “यह तो मुझे ही मिलना चाहिए" क्योंकि मैं राजा हूँ और सब निधानों का स्वामी तो राजा ही होता है। एक बार दशानन सज-धज के रत्नावली नाम की कन्या के विवाह के लिये विमान में अपनी पटरानी मंदोदरी आदि रानियों के साथ बैठा हुआ आकाशमार्ग से जा रहा था, जब उसका विमान कैलाशपर्वत पर, जहाँ श्री बालि मुनिराज तपस्या कर रहे थे, वहाँ पहुँचा तब अचानक वह अटक गया। बहुत उपाय करने पर भी विमान आगे नहीं चला, लंकेश विचारने लगा इसका क्या कारण है ? चारों ओर देखने पर भी कुछ कारण नजर नहीं आया। आता भी कैसे ? क्योंकि विवाह के राग में मतवाला हो जाने से उसे वह विवेक ही नहीं रहा कि जहाँ जिनालय होते हैं, जिनगुरु विराजते हैं उनके ऊपर से विमान तो क्या जगत के कोई भी वाहन गमन नहीं करते। __उसने ज्यों ही नीचे की ओर दृष्टि डाली तो उसे कुछ जिनालय एवं ध्यानस्थ मुनिराज दिखाई दिये, उसने अपना विमान नीचे उतारा; पर ज्यों ही उसकी नजर बालि मुनिराज पर पड़ी, बस फिर क्या था, उसके हृदय में क्रोध भड़क उठा उसने सोचा निश्चित इस बालि ने ही द्वेष से मेरा विमान अटकाया है; क्योंकि पूर्व बैर युक्त-बुद्धि में ऐसा ही सूझता है। स्व-पर विनाशक, दुर्गति का हेतु क्रोधासुर महापाप करने के लिए रावण को उत्तेजित करने लगा कि अब बालि मुनि हो गया है, बदले में यह कुछ कर तो सकता नहीं; अतः बदला लेने का अच्छा अवसर है। अरे रे ! जिसे आगामी पर्याय नरक की ही बिताना है - ऐसे उस दुर्मति सम्पन्न दशानन ने आदिप्रभु का सिद्धिधाम कैलाशपर्वत सहित बालि मुनिराज को समुद्र में पटक देने का विचार किया और अपनी

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