Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 27
________________ 25 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ से रहित तथा संयोजना रहित, प्रमाण सहित अंगार तथा धूमदोष रहित भोजन करते हैं। __ नवधा भक्ति से युक्त दातार के सात गुण सहित श्री मुनिराज आहार लेते हैं। १. प्रतिग्रह, २. उच्चस्थान, ३. चरण प्रक्षालन, ४. अर्चना, ५. नमस्कार, ६. मनशुद्धि, ७. वचनशुद्धि, ८. कायशद्धि, ९. आहार शुद्धि - यह नवधा भक्ति है। - १. दान देने में, जिसके धर्म का श्रद्धान हो २. साधु के रत्नत्रय आदि गुणों में भक्ति हो ३. दान देने में आनन्द हो ४. दान की शुद्धता-अशुद्धता का ज्ञान हो ५. दान देकर इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगों की अभिलाषा न हो ६. क्षमावान हो ७. शक्ति युक्त हो- ये दाता के सप्त गुण हैं। बत्तीस अन्तराय - काक-अंतराय, अमेद्य, छर्दि, रोधन, रुधिर, अश्रुपात, जान्वधः परामर्श, जानूपरिव्यतिक्रम, नाभ्यधोनिर्गमन, स्वप्रत्याख्यातसेवन, जीववध, काकादिपिण्डहरण, पिण्डपतन, पाणिजंतुवध, मांसदर्शन, उपसर्ग, पंचेन्द्रियगमन, भाजनसंपात, उच्चार, प्रस्त्रवण, भिखापरिभ्रमण, अभोज्यगेहप्रवेश, पतन, उपवेशन, दष्ट, भूमिस्पर्श, निष्ठीवन, कृमिनिर्गमन, अदत्त, शस्त्र प्रहार, ग्रामदाह, पादग्रहण और हस्तग्रहण इनके अलावा और भी चांडालादि स्पर्श, इष्टमरण, प्रधान पुरुषों का मरण इत्यादि अनेक कारणों की उपस्थिति होने पर इन्हें टालकर आचारांग की आज्ञाप्रमाण शुद्धता सहित ही पूज्य बालि मुनिराज आहार ग्रहण करते। __अहो ! अनाहारीपद के साधक मुनिकुंजर क्षण-क्षण में अन्तर्मुख हो आनन्दामृत-भोजी अति-शीघ्रता से अशरीरीदशामय शाश्वतपुरी के लिये अग्रसर होते जाते हैं। श्री गुरुराज ने देखा कि ये बालिमुनि तो असाधारण प्रज्ञा के धनी

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