Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 28
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२ 26 I हैं । विनय तो रोम-रोम में समाई हुई है, विनय की अतिशयता है । मति, श्रुत, अवधिज्ञान के धारी हैं और वज्रवृषभनाराचसंहनन के भी धारी हैं। मनोबल तो इनका मेरू के समान अचल है। देव, मनुष्य, तिर्यंच घोर उपसर्ग करके भी इन्हें चलायमान नहीं कर सकते आत्मभावना और द्वादशभावना को निरन्तर भाने के कारण कभी भी आर्त- रौद्र परिणति को प्राप्त नहीं होते और बहुत काल के दीक्षित भी हैं । मेरे (श्रीगुरु ) निकट रहकर निरतिचार चारित्र का सेवन भी करते हैं। क्षुधादि बाईस परीषहों पर जयकरण शील भी हैं। दीक्षा, शिक्षा एवं प्रायश्चित विधि में भी कुशल हैं। धीर-वीर गुण गंभीर. हैं । - ऐसे सर्वगुण सम्पन्न गणधर तुल्य विवेक के धनी बालि मुनिराज को श्रीगुरु ने एकलविहारी रहने की आज्ञा दे दी। श्री गुरु की बारम्बार आज्ञा पाकर श्री बालिमुनिराज अनेक वनउपवनों में विहार करते हुए अनेक जिनालयों की वन्दना करते हैं। अनेक जगह अनेक आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर ये पंच प्रधानपुरुषों के संघ को प्राप्त किया। जिससे उनके गुणों में दृढ़ता वृद्धिंगत हुई, ज्ञान की निर्मलता हुई, चारित्र की परिशुद्धि हुई। कभी कहीं धर्मलोभी भव्यों को धर्मोपदेश देकर उनके भवसंताप का हरण किया। आ हा हा ! ध्यान- ज्ञान तो उनका जीवन ही है। निश्चल स्थिरता के लिये कभी माह, कभी दो माह का उपवास करके गिरिशिखर पर आतापन योग धारण कर लेते, तो कभी आहार चर्या हेतु नगर में पधारते, कभी आहार का योग बन जाता तो कभी नहीं भी बनता; पर समतामूर्ति गुरुवर वन में जाकर पुनः ध्यानारूढ़ हो जाते, अतीन्द्रिय आनन्द का रसास्वादन करते हुए सिद्धों से बातें करते । इसप्रकार विहार करते हुए धर्म का डंका बजाते हुए अब गुरुवर श्री आदिप्रभु के सिद्धि-धाम कैलाश श्रृंगराज पर पहुँचे, वहाँ के सभी जिनालयों की वंदना कर पर्वत की गुफा जा विराजमान हुए और स्वरूपगुप्त हो गये।

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