Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 25
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ घुटें पीते हुए सिद्धों से बातें करने लगे। अहो ! जमे जमाये ध्रुवधाम में अब गुरुवर की परिणति मंथर हो गई। चैतन्यामृत भोजी गुरुवर अब सादि अनन्त काल के लिये परिग्रह रहित हो यथाजातरूपधारी (नवजात बालक की भाँति अन्तर-बाह्य निर्विकार नग्नरूप) बन गये। पंच महाव्रत, पंच समिति, पंच इन्द्रियविजय, षट्-आवश्यक एवं सात शेष गुण – कुल २८ मूलगुणों को निरतिचार रूप से पालन करते हुए रत्नत्रयमयी जीवन जीने लगे। नवीन राजा सुग्रीव ने माता-पिता, रानियों एवं प्रजाजनों के साथ महाराजा बालि की दीक्षा समारोह हर्ष पूर्वक मनाया तथा भावना भाई कि हे गुरुवर ! इस दशा की मंगल घड़ी हमें भी शीघ्र प्राप्त हो, हम सभी भी निजानन्द बिहारी होकर आपके पदचिन्हों पर चलें। ___ पूज्य श्री मुनिपुंगव गुरुपदपंकजों की शरण ग्रहण कर जिनागम का अभ्यास करने में तत्पर हो गये। अतः पूज्य श्री बालि मुनिराज अल्पकाल में ही सम्पूर्ण आगम के पाठी हो गये। ___जब कभी गुरुवर आहार चर्या को निकलते तो जिन ४६ दोषों और ३२ अंतरायों को टालते हुए आहार ग्रहण करते, वे क्रमशः इसप्रकार हैं- भोजन की शुद्धता अष्ट दोषों से रहित है - उद्गम, उत्पादन, एषण, संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम, कारण। इनमें उद्म दोष १६ प्रकार का है जो गृहस्थों के आश्रित है जिनके नाम हैं - उद्दिष्ट, अध्यवनि, पूति, मिश्र, स्थापित, बलि, प्राभृत, प्राविष्कृत, क्रीत, प्रामृष्य, परावर्त, अभिहत, उद्भिन्न, मालिकारोहण, आछेद्य, अनिसृष्ट ये १६ दोष हैं। मुनिमार्ग को जानने वाला गृहस्थ ऐसे दोष लगाकर मुनिराज को आहार नहीं देता है और यदि इन दोषों का ज्ञान मुनिराज को हो जावे तो वे भोजन में अन्तराय मानकर वापिस वन को चले जाते हैं। अधःकर्म - आहार बनाने में छह काय के जीवों का प्राण घात

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