Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 23
________________ 21 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ रस को पीने के लिए ही आतुर थे। अब राज्य का राग ही अस्त हो गया था तो राज्य करे कौन ? वैरागी चरमशरीरियों का निर्णय अफरगामी होता है, जो कभी फिरता नहीं है। न्याय नीतिवंत, धर्मज्ञ राजा के राज्य में प्रजा सदा सुखी रहती थी - ऐसे राजा का वियोग, अरे रे !....हाहाकार मच गया, प्रजा के लिए तो मानों उनका वियोग असहनीय ही हो गया हो। अतः प्रजा अपने प्राणनाथ के पीछे-पीछे दौड़ी जा रही है, कोई उनके चरणों को पकड़ कर विलाप करता है, तो कोई उन्हें जिनेश्वरी दीक्षा लेने से रोकता हुआ कहता है। “हे राजन् ! हम आपकी साधना में अन्तराय नहीं डालना चाहते; परन्तु इतना निवेदन अवश्य है कि आप अपनी साधना महल के उद्यान में रहकर ही कीजिए, जिससे हम सभी को भी आराधना की प्रेरणा मिलती रहेगी, हमारे हित में आप उपकारी बने रहें - ऐसी हमारी भावना है। आपके बिना हम प्राण रहित हो जायेंगे। हे राजन् ! हमारी इतनी-सी विनती पर ध्यान दीजिये।" ___ मुक्ति-सुन्दरी के अभिलाषी को रोकने में भला कौन समर्थ हो सकता है ? निज ज्ञायक प्रभु के आश्रय से उदित हुए वैराग्य को कोई प्रतिबन्धित नहीं कर सकता। चरम शरीरियों का पुरुषार्थ अप्रतिहत भाव से चलता है, जो शाश्वत आनन्द को प्राप्त करके ही रहता है। शीघ्रता से बढ़ते हुए महाराजा बालि कुछ ही समय में श्रीगुरु के चरणों की शरण में पहुँच गये। गुरु-पद-पंकजों को नमन कर अंजुली जोड़कर इसप्रकार विनती करने लगे। “हे प्रभो! मेरा मन अब आत्मिक अतीन्दिय आनन्द का सतत आस्वादन करने को ललक उठा है। ये सांसारिक भोग विलास, राग-रंग मुझे स्वप्न में भी नहीं रुचते हैं। ये ऊँचे-ऊँचे महल अटारियाँ श्मशान की राख समान प्रतिभासित होते हैं, अतः हे नाथ! मुझे पारमेश्वरी दिगम्बर-दीक्षा देकर अनुगृहीत कीजिए।"

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