Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 15
________________ 13 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ आदि सम्बन्धों को अर्थात् तीन लोक और तीन काल के चराचर पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष एक ही समय में जानते हैं एवं अपनी दिव्यध्वनि द्वारा दर्शाते हैं, अतः प्रभु की वाणी ही जिनवाणी या सुशास्त्र कहलाते हैं। ऐसे देव क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषों से रहित और सम्यक्त्वादि अनन्त गुणों से सहित हैं। यही कारण है कि प्रभु की वाणी परिपूर्ण शुद्ध, निर्दोष एवं वीतरागता की पोषक होती है। उस वाणी के अनुसार जिनका जीवन है, जो परम दिगम्बर मुद्राधारी हैं, ज्ञान-ध्यानमयी जिनका स्वरूप है, जो २४ प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, वे ही हमारे सच्चे गुरु हैं। भव दुःख से भयभीत, अपने हित का इच्छुक भव्यात्मा ऐसे देव-शास्त्र-गुरु की आराधना करता है। इनके अतिरिक्त जो मोहमुग्ध देव हैं, संसार पोषक शास्त्र हैं और रागी-द्वेषी एवं परिग्रहवंत गुरु हैं, उनकी वंदना कभी नहीं करना चाहिए; क्योंकि वीतराग-धर्म गुणों का उपासक है कोई व्यक्ति या वेश का नहीं, इसलिए. श्री पंचपरमेष्ठियों की वीतरागीवाणी और वीतरागीधर्म के अलावा और किसी को नमन नहीं करना चाहिए, क्योंकि पंचपरमेष्ठी और उनकी वाणी के अतिरिक्त सभी धर्म के लुटेरे हैं और मिथ्यात्व के पोषक हैं, अनन्त दुःखों के कारण हैं। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु, सात तत्त्व, हितकारी-अहितकारी भाव, स्व-पर इत्यादि मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत तत्त्व हैं, उनके सम्बन्ध में विपरीत मान्यता को मिथ्यात्व कहते हैं। इस विपरीत अभिप्राय के वश होकर यह प्राणी अनन्त काल से चौरासी लाख योनियों में भ्रमता हुआ अनन्त दुःख उठाता आ रहा है। निगोदादि पर्यायों से निकलकर महादुर्लभ यह त्रस पर्याय को प्राप्त करता है, उसमें भी संज्ञी पंचेन्द्रिय, मनुष्यपर्याय, श्रावककुल, सत्यधर्म का पाना अतिदुर्लभ है, यदि ये भी मिल गये तो सत्संगति और सत्यधर्म को ग्रहण करने की बुद्धि का मिलना अत्यन्त

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