Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 16
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ दुर्लभ है। सत्यधर्म को अवधारण करने के लिये कषायों की मंदता होना महादुर्लभ है। __ हे भव्योत्तम ! इतनी दुर्लभता तो तू महाभाग्य से पार कर चुका है। इसलिऐ सच्चे देव-शास्त्र-गुरुओं के उपदेश से तू अब मिथ्या मान्यताओं को तजकर वस्तु स्वरूप को ग्रहण कर, यह धर्म ही संसार सागर से पार उतारने वाला सच्चा यान/जहाज है। श्रीगुरु का उपदेशामृत पानकर महाराजा बालि का मन-मयूर प्रसन्न हो गया। अहो ! इस परम हितकारी शिक्षा को मैं आज ही अंगीकार करूँगा। अतः बालि अपनी भावनाओं को साकार करने हेतु तत्काल ही श्रीगुरुचरणों में अंजुली जोड़कर नमस्कार करते हुए बोले-हे प्रभोमुझे यह हितकारी व्रत प्रदान कर अनुगृहीत कीजिये। हे भवभयभीरू नृपेश ! तुम्हारी भली होनहार है अतः आज तुम पंचपरमेष्ठी, जिनवाणी, प्रजाजनों की एवं आत्मा की साक्षीपूर्वक यह प्रतिज्ञा अंगीकार करो कि “मैं पंचपरमेष्ठी भगवंतों को, जिनवाणी माता को और वीतरागी जिनधर्म के अलावा किसी को भी नमन नहीं करूँगा।" राजा हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए बोले"प्रभो ! आपके द्वारा प्रदत्त हितकारी व्रत को मैं यम रूप से अंगीकार करता हूँ।" पश्चात् गुरु-वन्दना एवं 16 हितका

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