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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ प्रदक्षिणा दी, फिर गुरुचरणों में सभी हाथ जोड़कर उनकी शान्त-प्रशान्त वैरागी मुद्रा को देखते हुए टकटकी लगाये हुए बैठ गये। अहा हा ! ज्ञानवैराग्यमयी परमशान्त मुद्रा का/चैतन्य का आन्तरिक वैभव बाह्य जड़ पुद्गल पर छा गया था। मुनिसंघ मानों सिद्धों से बातें करते हुए ध्यानस्थ अडोल-अकम्प विराजमान था। __धर्मामृत के पिपासु चातक तो बैठे ही हैं। कुछ समय बाद मुनिराजों का ध्यान भंग हुआ। महा-विवेक के धनी गुरुराज ने प्रजाजनों के नेत्रों से उनकी पात्रता एवं भावना को पढ़ लिया, अतः वे उन्हें धर्मोपदेश देने लगे।
"हे भव्यो! धर्मपिता श्री तीर्थंकर परमदेव ने धर्म का मूल सम्यग्दर्शन कहा है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के यथार्थ श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। जिन्होंने निजात्मा के आश्रय से रत्नत्रय को प्राप्त कर अर्थात् मुनिधर्म साधन द्वारा अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर लिया है, वे वीतरागी, सर्वज्ञ तथा हितोपदेशी ही हमारे सच्चे आप्त/देव हैं। वे ही अपने केवलज्ञान के द्वारा जाति अपेक्षा छह और संख्या अपेक्षा अनन्तानंत द्रव्यों को, सात तत्त्वों को, नव पदार्थों को, ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध को, कर्ता-कर्म, भोक्ता-भोग्य