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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२
राजाज्ञा पाकर मंत्री शीघ्र ही दूत को महाराजा बालि के समक्ष ले आये। राजा को नमस्कार करते हुए दूत ने लंका नरेश का सन्देश इसप्रकार कहा - "हे राजन् ! जगत विजयी राजा दशानन का कहना है कि आप और हमारे बीच परम्परा से स्नेह का व्यवहार चला आ रहा है, उसका निर्वाह आप को भी करना चाहिए तथा आपके पिताजी
को हमने सूर्य के शत्रु अत्यन्त प्रचण्ड राजा को जीतकर उसका राज्य आपको दिया था, अतः उस उपकार का स्मरण करके आप अपनी बहन श्रीमाला लंकाधिपति को देकर उन्हें नमस्कार करें और फिर अपना राज्य सुख
३पूर्वक करते रहें।"
। हे राजदूत ! राजा दशानन का उपकार मेरे हृदय में अच्छी तरह से प्रतिष्ठित है, उसके फलस्वरूप मैं अपनी बहन श्रीमाला को ससम्मान राजा को समर्पित करने को तैयार हूँ, मगर आपके राजा को नमस्कार नहीं करूंगा। __हेराजन् ! नमस्कार न करने से आपका बहुत अपकार होगा। उपकारी
का उपकार न मानने वाला जगत में कृतघ्नी कहलाता है। नमस्कार न करने का क्या कारण है राजन् !
हे कुशलबुद्धे ! इतना तो आप जानते ही होंगे कि जिनधर्म में कोई पद पूज्य नहीं होता, कोई व्यक्ति या जाति पूज्य नहीं होती, जिनधर्म तो गुणों तथा सम्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्र का उपासक होता है और आपके
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