Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 16
________________ आचार्य गंग आचार्य महागिरी के शिष्य आचार्य धनगुप्त के शिष्य थे। एक बार आचार्य गंग शरदकाल में अपने आचार्य को वंदना करने उल्लका नदी को पारकर जा रहे थे। वे नदी में उतरे तो सिर गंजा होने के कारण सूरज से सिर तप रहा था और नीचे से पानी शीतल लग रहा था। उनको संदेह हुआ की आगम में कहा है कि एक समय में एक क्रिया का अनुभव होता है पर मुझे तो एक साथ दो क्रियाओं (गर्मी और शीतलता) का अनुभव हो रहा है। वे गुरु के पास पहुँचे और अपना अनुभव सुनाया। गुरु ने कहा - वास्तव में एक समय में एक क्रिया का ही अनुभव होता है। समय और मन का क्रम बहुत सूक्ष्म है, अतः हमें उसकी पृथक्ता का अनुभव नहीं होता। गुरु के समझाने पर भी वे नहीं समझे, तब उनको संघ से पृथक कर दिया गया। एक बार आचार्य गंग विचरण करते हुए राजगृह नगर में आए। वहां मणिनाग नाम नागदेव का चैत्य था। वहाँ सभा के सामने भी गंग ने एक समय में दो क्रियाओं के वेदन की बात कही। मणिनाग नागदेव ने सभा के मध्य प्रकट होकर कहा - तुम यह मिथ्या प्ररुपणा मत करो। मैंने भगवान के मुख से सुना है कि एक समय में एक ही क्रिया का संवेदन होता है। तुम अपने मिथ्यावाद को छोटो अन्यथा तुम्हारा कल्याण नहीं होगा, इसका भयंकर परिणाम हो सकता है। नागदेव के ऐसे वचनों को सुनकर आचार्य गंग भयभीत हुए और उन्होंने वह मिथ्या प्ररुपणा छोड दी। वे प्रबुद्ध हुए और गुरु के पास आकर प्रायश्चित पूर्वक संघ में सम्मिलित हो गये । * रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद : भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के 544 वर्ष बाद अन्तरंजिका नगरी में त्रैराशिक मत का प्रवर्तन हुआ। इसके प्रवर्तक रोहगुप्त (षडुलूक) थे। ___ रोहगुप्त आचार्य श्री गुप्त के शिष्य थे। एक दिन आचार्य को वंदना करने जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक पोट्टशाल नाम का परिव्राजक मिला, जो हर एक को अपने साथ शास्त्रार्थ करने की चुनौती दे रहा था। रोहगुप्त ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली और आकर आचार्य को सारी बात कही। आचार्य ने कहा - वत्स ! तुमने यह ठीक नहीं किया। वह परिव्राजक सर्प आदि सात विद्याओं में पारंगत है, अतः तुमसे वह बलवान् है। रोहगुप्त आचार्य की बात सुनकर अवाक् रह गये | आचार्य ने कहा - वत्स! अब डरो मत। मैं तुम्हें उसकी प्रतिपक्षी मयूरी, नाकुली आदि सात विद्याएं सिखा देता हूँ। तुम यथा समय उनका प्रयोग करना। आचार्य ने रजोहरण को मंत्रित कर उसे देते हुए कहा - वत्स ! इन सातों विद्याओं से तुम उस परिव्राजक को पराजित कर दोगें । फिर भी यदि आवश्यकता पडे तो तुम इस रजोहरण को घूमाना, फिर तुम्हें वह पराजित नहीं कर सकेगा। रोहगुप्त सातों विद्याएँ सीखकर और गुरु का आशीर्वाद लेकर राजसभा में आये और परिव्राजक को वाद के लिए आमंत्रित किया। दोनों शास्त्रार्थ के लिए उद्यत हुए। परिव्राजक ने अपना पक्ष स्थापित करते हुए कहा राशी दो है - एक जीव राशी और दूसरी अजीव राशी, रोहगुप्त ने जीव - अजीव और नोजीव ! मनुष्य, तिर्यंच आदि जीव है। घट - पट आदि अजीव है और छिपकली की पूँछ आदि नोजीव है। इत्यादि अनेक युक्तियों से अपने कथन को प्रमाणित कर रोहगुप्त ने परिव्राजक को हरा दिया। अपनी हार देख परिव्राजक ने क्रुद्ध हो एक - एक कर अपनी विद्याओं का प्रयोग करना प्रारंभ किया। रोहगुप्त ने उसकी प्रतिपक्षी विद्याओं से उन सबको निष्फल कर दिया। तब उसने अंतिम अस्त्र के रुप में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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