Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 36
________________ बंध * बंध-तत्व * आत्मा अपने मौलिक रूप में शुद्ध चिदानन्दमय एवं अनन्त शक्ति संपन्न है। किन्तु तथा विध भवितव्यतायोग से उसका यह कर्मरूप पानी शुद्ध मौलिक स्वरूप अनादिकाल से विभाव-परिणत है। मिट्टी मिले का संबध हुए स्वर्ण की तरह संसारी आत्मा राग-द्वेष, मोह, कषाय आदि विभावों से पूरी तरह प्रभावित है। जिसके कारण वह अपने मौलिक स्वरूप भूलकर विभाव को ही स्वभाव मानने लगी है और उसी में आनंद समझने लगी है। इस विभाव एवं विपरीत परिणति के कारण आत्मा कर्मों का बंध करती हैं। वे बंधे हुए कर्म आत्मा के मौलिक गुणों का आवरण और घात करती है, जिसके फलस्वरूप आत्मा अपनी स्वतंत्रता खोकर कर्मबंधनों के अधीन हो जाती है और उनका नचाया हुआ नाच नाचती हैं। आत्मा और कर्मों का यह संबंध ही बंध तत्व है। बंध की परिभाषा करते हुए तत्वार्थ सूत्र में कहा गया है - "सकषायत्वाज्जीव कर्मणों योग्यान् पुद्गलानादत्ते संबंध" कषाय-परिणत आत्मा कर्म योग्य पुद्गलो को ग्रहण करती है, वह बंध है। जैसे - दूध में जल, तिल में तेल, लोहे के गोले में अग्नि, उसी प्रकार आत्मप्रदेशों में कर्म पुद्गल व्याप्त होते हैं । यही बंध है। अतः आत्मा और कर्म, इन दो पदार्थों के विशिष्ट संबंध को बंध कहते हैं। बंध के कारण : कर्मबंध के पांच कारण है - 1. मिथ्यात्व 2. अविरति 3. प्रमाद 4. कषाय और 5. योग 1. मिथ्यात्व :- विपरित श्रद्धा होना मिथ्या दर्शन हैं। 2. अविरति :- व्रत पच्चक्खाण नहीं करना। दोषों से विरक्त न होना, षट्काय जीवों की हिंसा करना और पांच इन्द्रियों तथा मन को विवेक में नहीं रखना अविरति है। 3. प्रमाद :- अनुपयोगदशा, पुण्य-कार्यों या शुभ कर्मों के विषय में अनादर भाव, कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक न रखना और शुद्ध आचार के संबंध में सावधानी न रखना ये प्रमाद हैं। 4. कषाय :- कर्म या संसार को कष कहते है। और आय अर्थात प्राप्ति। जिसके कारण कर्म या संसार की प्राप्ति होती है, उसे कषाय कहते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। 5.योग:- मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों को योग कहते हैं। बंध के दो प्रकार : 1. द्रव्य बंध और 2. भाव बंध 1. द्रव्य बंध :- कर्म पुद्गलों का आत्म प्रदेशों से संबंध होना द्रव्य बंध है। द्रव्यबंध में आत्मा और कर्म पुद्गलों का संयोग होता है। परंतु ये दो द्रव्य एक रुप नहीं हो जाते, उनकी स्वतंत्र सत्ता बनी रहती हैं। 2.भावबंध :- जिन राग, द्वेष और मोह आदि विचार भावों से कर्म का बंधन होता है, उसे भावबंध कहते है। KAmrimurxxxAAAAAAAAAAAAAAA31 Jain Education International For Personal Trivate Use Only www.ainelibrary.org

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