Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 113
________________ मणदुक्कडाए मन के अशुभ परिणाम से। वयदुक्कडाए दुर्वचन से। कायदुक्कडाए शरीर की दुष्ट चेष्टा से। कोहाए माणाए मायाए लोहाए क्रोध, मान, माया, लोभ से। सव्वकालियाए सर्वकाल (भूत, वर्तमान, भविष्य) में। सव्व मिच्छोवयाराए सर्वथा मिथ्योपचार से पूर्ण। सव्व धम्माइक्कमणाए सकल धर्मों का उल्लंघन करने वाली आसायणाए आशातनाओं का सेवन किया या हुआ। जो मे देवसिओ (अर्थात्) जो मैंने दिवस संबंधी। अइयारो कओ अतिचार (अपराध) किया। तस्स खमासमणो उसका हे क्षमाश्रमण! पडिक्कमामि प्रतिक्रमण करता हं। निंदामि आत्म साक्षी से निंदा करता हूं। गरिहामि आपकी (गुरु की) साक्षी से गर्दा करता हूं। अप्पाणं वोसिरामि (व) दूषित आत्मा को त्यागता हूं। * तस्स सव्वस्स का पाठ * , तस्स सव्वस्स देवसियस्स उन सब दिन संबंधी। अइयारस्स अतिचारों का जो। दुब्भासिय-दुच्चिन्तिय-दुच्चिट्ठियस्स दुर्वचन व बुरे चिंतन से। तथा कायिक कुचेष्टा से किये गये हैं। आलोयंतो पडिक्कमामि उन अतिचारों की आलोचना करता हुआ उनसे निवृत्त होता हूं। *बड़ी संलेखना * अह भंते! इसके बाद हे भगवान! अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा। सबके पश्चात् मृत्यु के समीप होने वाली संलेखना अर्थात् जिसमें शरीर, कषाय, ममत्व आदि कृश (दुर्बल) किये जाते हैं, ऐसे तप विशेष के। झूसणा संलेखना का सेवन करना। आराहणा संलेखना की आराधना। पौषधशाला धर्मस्थान अर्थात् पौषधशाला। पडिलेहिय प्रतिलेखन कर। नाई। RAP108

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