Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 114
________________ पमज्जिय उच्चार- पासवण भूमि पडिलेह के गमणागमणे पडिक्कम के दर्भादिक संथारा संथार कर दुरूह कर करयल - संपरिग्गहियं सिरसावत्तं बायीं मत्थए अंजलि - कट्टु एवं वयासी निः‍ ः शल्य अकरणिज्जं जंपि यं इमं सरीरं इट्ठ कंतं पियं मणुणं माणं धिज्जं विसासियं सम्मयं अणुम बहुम भण्ड-करण्डगसमाणं रयण-करण्डगभूयं Jain Education International पूंजकर । मलमूत्र त्यागने की भूमि का । पडिलेहन अर्थात् देखकर के । जाने आने की क्रिया का । प्रतिक्रमण कर । डाभ (तृण, घास) का संथारा । बिछाके । संथारे पर आरूढ़ होकर के । दोनों हाथ जोड़कर | मस्तक से आवर्त्तन (मस्तक पर जोड़े हुए हाथों को तीन बार अपनी ओर से घुमा) करके । मस्तक पर हाथ जोड़कर । इस प्रकार बोले । माया, मिथ्यादर्शन और निदान (नियाणा) इन तीन शल्यों से रहित । नहीं करने योग्य। और जो भी यह शरीर । इष्ट | कान्तियुक्त । प्रिय, प्यारा । मनोज्ञ, मनोहर । मन के अनुकूल । धैर्यशाली | धारण करने योग्य। विश्वास करने योग्य । मानने योग्य। सम्मत । विशेष सम्मान को प्राप्त । बहुमत (बहुत माननीय) जो देह । आभूषण के करण्डक (करण्डिया डिब्बा) के समान । रत्नों के करण्डक के समान जिसे । 109 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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