Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 122
________________ किया और फिर कहा - आचार्यश्री ! आपके पास प्रायश्चित लेने आई हूँ। मुझे आप प्रायश्चित दीजिए । स्वयं को योग्य मार्ग बतानेवाली साध्वी याकिनी महत्तरा को आचार्य हरिभद्रसूरि माता मानते थे। ऐसी माता समान साध्वी सामने आकर किस बात का प्रायश्चित लेने आई है यह जानने की श्री हरिभद्रसूरि की जिज्ञासा जाग उठी। याकिनी महत्तरा ने कहा कि अनजाने में चलते चलते मेरे पाँव से एक मेंढक दब गया। एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा से मेरी आत्मा अपार वेदना का अनुभव कर रही है। इसलिए मैं इस हिंसा का प्रयश्चित करना चाहती हूँ, कारण कि यदि आलोचणा ( दोषों का स्वीकार करके प्रायश्चित लेना) किये बिना मेरी आयु पूरी हो जाय, तब यह पाप मुझे लग जाएगा। आचार्य हरिभद्रसूरि ने कुछ ऊँची आवाज में कहा - अहो ! आप पंचेन्द्रिय जीव का ध्यान नहीं रख पायी ? तुम्हें प्रायश्चित करना ही होगा। याकिनी महत्तरा ने प्रायश्चित का सविनय स्वीकार करके कहा, मुझसे अनजाने में हुए एक तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव (मेंढक ) की हिंसा का प्रायश्चित तो मिला, परंतु आप 1444 मनुष्यों की जान बूझकर हिंसा कर रहे हो उसका प्रायश्चित क्या होगा ? - साध्वी याकिनी महत्तरा के ये शब्द सुनते ही आचार्यश्री हरिभद्रसूरि का क्रोध शांत हो गया । अध्यापकों एवं विद्यार्थीयों को मंत्रबल से बुलाये थे, उन्हें वापस भेज दिया। अपने दुष्कृत्य करने के विचार के प्रायश्चित रुप क्षमा आदि गुणों को प्रकट करें ऐसे 1444 ग्रंथों की रचना की । क्रोध क्षमा में परिवर्तित हो गया। वैर - भावना विद्या में पलट गई। 1440 ग्रंथ रचे जा चुके थे, लेकिन चार ग्रंथ बाकी थे। उस समय उन्होंने चार ग्रंथ के स्थान पर संसार दावानल शब्द से प्रारंभ होती चार स्तुति बनायी, उसमें चौथी श्रुतदेवी की स्तुति का प्रथम चरण रचा, उसी समय उनका आयुष्य पूर्ण हो गया और उनके हृदय के भावानुसार श्री संघ ने गुरु स्तुति रची, तब से तीन चरण श्री संघ द्वारा "झंकारा राव सारा" तपागच्छ परंपरा में पक्खी और संवत्सरी प्रतिक्रमण में उच्च स्वर में बोली जाती है। सूत्र, उन्होंने महान ग्रंथ रचे हैं, जिसमें श्री नंदीसूत्र, अनुयोगद्वार आवश्यक सूत्र आदि आगमों पर विशेष टीका भी रची है। षड्दर्शनसम्मुचय, ललित विस्तार, पंचाशक प्रकरण, योग बिंदु, योग विशिका, धर्मबिंदु आदि अनेक प्रसिद्ध ग्रंथ है। ऐसा कहा जाता है कि लिंग सेठ ने दिये हुए रत्न के प्रकाश में आचार्य हरिभद्रसूरिजी रात्री में ग्रंथ रचना करते थे। ऐसे महान आचार्य का जीवनकाल वीर निर्वाण सं 1227 से 1297 (वि.सं. 757 से 827) तक का माना जाता है। Jain Education International 117 For Personal & Private Use Only 1000000 www.jainelibrary.org

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