Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 129
________________ बैठा हुआ था। रात्री होने से कर्ण को हल्का सा नींद का झोका आ गया। इतने में उसके गले का महामूल्यवान हार एक पेड की डाली में फंस गया, हाथी तीव्र वेग से चल रहा था इस कारण गले का हार उसका फांसी का फंदा बन गया और थोडी ही क्षणों में राजा का शव पेड के साथ लटकता हुआ सैन्य को दिखने मिला। सैन्य हताश हो गये और आये थे उसी रास्ते वापिस लौट गये ।' यह समाचार सुनकर कुमारपाल राजा आश्चर्यमुग्ध हो गये। श्री हेमचन्द्राचार्य की अथाग कृपा का परिणाम वह समझ सके। तय किये हुए मुहूर्त पर संघ निकले। शत्रुंजय और गिरनार की यात्रा करके कुमारपाल और संघ के हजारों लोग धन्य बन गये। जिस प्रकार कुमारपाल के हृदय में हेमचन्द्राचार्य बसे हुए थे वैसे ही हेमचन्द्राचार्य के मन में भी कुमारपाल बसे थे। धर्म के महान कार्य कुमारपाल करते थे। अट्ठारह देशों में अहिंसा फैलाकर उन्होंने हजारों जिन मंदिर बनवाये। अनेक ज्ञान भंडकार बनवायें और लाखों दुःखी साधर्मिक जैनों को सुखी बनाया। राज-क्षेत्र में षड्यंत्रों की तौबा । महाराजा कुमारपाल भी षड्यन्त्र का ही शिकार हुए। हेमचन्द्राचार्य के कालधर्म पाने के छः महिने बाद कुमारपाल पर विष प्रयोग किया गया, जो सत्ता के सिंहासन को हथियाने हेतु लालचित पापी अजयपाल की घिनौनी चाल थी। आहिस्ता आहिस्ता जहर समूचे बदन में फैलने लगा, पलक में ही सही वस्तुस्थिति का अंदाजा आते ही उन्होंने कोषाध्यक्ष से खजाने में रहा हुआ विषहर मणि लाने हेतु कहा। कुमारपाल यद्यपि मौ से लेश मात्र डरते नहीं थे, फिर भी इस तरह बेमौत से मरना भी नहीं चाहते थे क्योंकि यह अतिदुर्लभ मानव जन्म पुनः पुनः पाना लौहे के चने चबाने से कोई कम नहीं, इसीलिए इस तरह आसानी से मरने की बजाय जिंदा रहकर धर्म को क्यों नहीं साध लेना । मगर रे ! दुर्भाग्य ! राजेश्वर ! विषहर मणि चुरा ली गई है, यह सुनकर भवितव्याता को ध्यान में रखते हुए, दानीश्वर कुमारपाल ने वीर ! वीर ! जपते हुए अपने प्राण छोड दिये। राजा कुमारपाल का भतिजा अजयपाल राजा बनते ही कुमारपाल राजा के द्वारा जगह- जगह पर बनाये गये जिनालय आज खंडहर के रुप में परिवर्तित हो गये, चूंकि अन्याय के खिलाफ विद्रोह करने की शक्ति प्रजा में अभी तक उभरी नहीं थी। जिस पाटण में हजारों साधु - साध्वीयों के दर्शन होते थे वहाँ अब एक साधु - साध्वी का दर्शन भी दुर्लभ हो गया। मंदिर मूर्ति बिना और उपाश्रय बिना साधु साध्वी के बन गये। - इस तरह तन मन धन व वचन से जैन शासन की अद्वितीय प्रभावना करके स्व पर का कल्याण करनेवाले परमार्हत महाराजा कुमारपाल ने अपना जन्म सफल बनाया । Jain Education International *** 124! For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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