Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 45
________________ सामायिक :षडावश्यक में सामायिक का प्रथम स्थान है, यह जैन आचार का सार है। सामायिक साधु और श्रावक दोनों के लिए आवश्यक है। जितने भी तीर्थंकर होते हैं वे सभी प्रथम सामायिक चारित्र को ग्रहण करते हैं। चारित्र के जो पाँच प्रकार बताये हैं, उनमें सामायिक चारित्र प्रथम है। श्रमणों के लिए सामायिक प्रथम चारित्र है, तो गृहस्थ साधकों के लिए चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत है। __* सामायिक के लक्षण :- सामायिक का मुख्य लक्षण समता और समभाव है। समता का अर्थ है मन की स्थिरता, एकाग्रता आदि । आचार्य हरिभद्रसूरि ने अष्टकप्रकरण में सामायिक में निम्न लक्षण बताये हैं। समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभ भावना। आर्तरौद्र - परित्यागस्तद्धि, सामायिकं व्रतम् || अर्थात् सभी जीवों के प्रति राग - द्वेष रहित समभाव रखना पांचों इन्द्रियों पर तथा मन के विकारों को वश में करना, उत्तम भावना रखना और आर्त - रौद्र ध्यान का त्याग कर धर्म और शुक्लध्यान का चिंतन करना सामायिक व्रत है। ___ * सामायिक का शब्दार्थ :- सम अर्थात् मध्यस्थ - सब जीवों के प्रति समभाव - राग द्वेष के अभाव वाले परिणाम। आय अर्थात् ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र रुप लाभ, इक भाव में प्रत्यय है। 1. ज्ञान दर्शन और चारित्र रुप भाव हो उसे सामायिक कहते हैं। 2. सर्व जीवों के साथ मैत्रीभाव हो, उसे सामायिक कहते हैं। 3. जो मोक्ष प्राप्त करने में ज्ञान, दर्शन, चारित्र का एक समान सामर्थ्य प्राप्त करावें उसे सामायिक कहते हैं। 4. सब प्रकार के राग द्वेष उत्पन्न करानेवाले परिणामों को समाप्त कर देने का प्रयास करना सामायिक है। 5. मन वचन और काया को स्थिर कर समत्व योग की प्राप्ति के मार्ग में प्रयाण करना सामायिक है। 6. सावद्य प्रवृत्तियों पर अरुचि, पाप का पश्चाताप, समता और मुक्ति के लिए प्रयास करना सामायिक है। * सामायिक के पात्र भेद से दो भेद है : 1. गृहस्थ की सामायिक और 2. श्रमण की सामायिक 1. गृहस्थ की एक सामायिक एक मुहूर्त यानी 48 मिनट की होती है। अधिक समय के लिए भी वह अपनी स्थिति के अनुसार सामायिक व्रत कर सकता है। 2. श्रमण की सामायिक यावज्जीवन के लिए होती है। गृहस्थ को सामायिक ग्रहण करने के पूर्व आसन, चरवला, मुहपत्ती आदि धार्मिक उपकरण एकत्रित कर एक स्थान में अवस्थित होना चाहिए। ये सब वस्तुएँ उत्तम, स्वच्छ एवं सादगीपूर्ण होनी चाहिए। साधक आत्मभाव में स्थिर रहता है। सामायिक में आत्मभाव का चिंतन इस प्रकार किया जाता है। 40 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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