Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 66
________________ सरमा * जिन दर्शन पूजन विधि * आत्मा निमित्तवासी है। शभ निमित्त और शभ वातावरण हो तो हमारे विचार शुभ बनते हैं एवं आत्मा में सुसंस्कार पडते हैं। यदि निमित्त और वातावरण अशुभ हो तो जीवन में विषय-विकारों का कचरा बढता जाता है। हम सिनेमा देखते हैं, यदि दृश्य अच्छा हो तो मन पर अच्छा असर पडता है, यदि दृश्य दुःखपूर्ण हो तो हमें भी दुःख का अनुभव होने लगता है, कभी कभी तो आंसू भी निकल जाते हैं। अश्लील दृश्य देखने पर भावों में मलीनता आ जाती है। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा पर निमित्तों के अनुरुप असर पड़ता है। अगर हमें अपने विषय विकारों को दूर करना है, मन को पवित्र एवं निर्मल बनाना है, तो उसके लिए उत्तम निमित्तों की आवश्यकता होगी। - जब हम अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं, तब उसकी साधना एवं साधन के प्रति हृदय में अनन्य आस्था और श्रद्धा पैदा हो जाती है। उससे हृदय में आगे बढ़ने की सत्प्रेरणा मिलती रहती है। यदि हमें आत्म विशुद्धि करनी है, राग - द्वेष से दूर होना है तो हमारे लिए उन्ही का आलम्बन लेना उपयोगी होगा जिन्होंने पुरुषार्थ द्वारा आंतरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर संपूर्ण कर्मों का क्षय कर लिया है। उनके इस स्वरुप की परिचायक (परिचय करानेवाला) उनकी मूर्ति व आकृति हमें उनकी साधना की स्मृति कराते हुए उस स्वरुप को प्राप्त करने की सशक्त प्रेरणा देती है। कायोत्सर्ग या पद्मासन मुद्रा में स्थिर, शांतरस से भरपूर जिनमुद्रा को देखकर हमें अपने स्वरुप की स्मृति हो जाती है। विषय विराम एवं परम शांति का अनुभव होता है। पाप भीरुता आती है और आत्मा निर्मल बनती है। प.प. देवचंद्रजी म.सा. भगवान महावीर स्वामी के स्तवन में फरमाते हैं कि ... स्वामी गुण ओलखी, स्वामी ने जे भजे, दर्शन शुद्धता तेह पामे। ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य उल्लास थी, कर्म झीपी वसे मुक्ति धामे।। परमात्मा के ज्ञानादि अनंतानंतगुणों को पहचान कर जो भक्त भगवान की भक्ति करते हैं। उनका सम्यग्दर्शन निर्मल होता है। दर्शन शुद्धि से ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य में उल्लास भाव होने से जीवात्मा अपने शुद्धात्म स्वरुप को पहचान कर, कर्म क्षयकर मुक्तिस्थान में वास करता है। परमात्मा का दर्शन पूजन संसार के राग द्वेष रुपी विष को उतारने की नागमणी के समान है। * परमात्मा के दर्शन से दुःख - दर्द, अशांती, अशाता, रोग आदि टल जाते हैं और सुखशांती - आरोग्य आनंद की प्राप्ति होती है। * परमात्मा की भक्ति, आंख व आत्मा की जनरल टॉनिक है। * मंदिर व तीर्थों का वातावरण याने वहाँ के वाईब्रेशन सहज सुहावने होते हैं, ऐसे वातावरण में हमेशा पहुँचाने वाला संसार का विर्सजन व पुण्य का सर्जन करता है। * विनाशी की शरण में जाने से विनाश होता है परंतु अविनाशी परमात्मा की शरण में जाने से विकास होता है। 161 Personali . . serenly . . . www.jainelibrary.org

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