Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 107
________________ वालों, सम्यग्दृष्टि जीवों को समाधि पहुंचाने वालों (ऐसे देवों की आराधना ) के निमित्त मैं कायोत्सर्ग करता हूं। ८ निसीहि अहोकायं, काय संफासं खमणिज्जो भे! किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे! दिवसो वइक्कंतो ? जत्ता भे ? जवणिज्जं च भे? खामि खमासमणो! देवसिअं वइक्कमं। आवस्सिआए पडिक्कमामि । खासमा देवसिआए आसायणाए, तित्तीसन्नयराए, जं किंचि मिच्छाए, मण-दुक्कडाए वयदुक्कडाए काय-दुक्कडाए, कोहाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए, मायाए लोभाए, सव्वधम्माइक्कमणाए, आसायणाए, जो मे अइयारो कओ, तस्स खमासमणो! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि ।। शब्दार्थ माणाए * सुगुरु वंदन सूत्र इच्छाम खमासमणो! वंदिउं जावणिज्जाए, निसीहिआए || अणुजाणह मे मिउग्गहं || इच्छामि - मैं चाहता हूं। खमासमणो - हे क्षमाश्रमण गुरुदेव । वंदिउं - वन्दन करना। जावणिज्जा- अपनी शक्ति के अनुसार । निसीहिआए - अन्य सब प्रकार के कार्यों को छोड़कर। अणुजाणह - आज्ञा प्रदान करो। - मुझे मिउग्गहं परिमित अवग्रह में आने के लिए, मर्यादित - भूमि में प्रवेश करने के लिए निसीहि - अशुभ व्यापारों के त्यागपूर्वक । अहोकायं - आपके चरणों को। काय - संफासं - मैं उत्तमांग (मस्तक) से स्पर्श करता हूं। खमणिज्जो - क्षमा करें। Jain Education International 102 For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org

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