Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

View full book text
Previous | Next

Page 65
________________ पच्चक्खाण पारणे के छ: अंग है 1. फासियं :- गुरु के पास या स्वयं विधिपूर्वक पच्चक्खाण लेना। 2. पालियं :- (पालित) ग्रहण किये हुए पच्चक्खाण का बार बार उपयोगपूर्वक स्मरण रखकर उसे भलीभांति सुरक्षित रखना भंग होने से बचाना। 3. सोहियं (शोभित) :- गुरुजनों व साथियों को अथवा अतिथिजनों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करना। 4. तीरिय (तीरित) :- लिए हुए पच्चक्खाण का समय पूरा हो जाने पर भी कुछ समय ठहकर आहार करना। चौविहार आदि में कुछ समय के पूर्व ही भोजन का त्याग कर देना। 5. कीट्ठियं (कीतित) :- भोजन प्रारंभ करने से पहले लिए हुए पच्चक्खाण का विचार कर उत्कीर्तन पूर्वक कहना कि मैंने अमुख पच्चक्खान अमुख रूप से ग्रहण किया था वह भलीभांति पूर्ण हो गया है। 6. आराहियं (आराधित) :- सब दोषों से सर्वथा दूर रहते हुए ऊपर कही हुई विधि के अनुसार पच्चक्खाण की आराधना करना। * पच्चक्खाण से लाभ :- आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने प्रत्याख्यान का महत्व बताते हुए कहा है कि प्रत्याख्यान करने से संयम होता है। संयम से आश्रव का निरोध होता है और आश्रव निरोध से तृष्णा का क्षय होता है। वस्तुतः प्रत्याख्यान अमर्यादित जीवन को मर्यादित या अनुशासित बनाता है। जैन परंपरा के अनुसार आश्रव और बंधन का एक कारण अविरति भी कहा गया है। प्रत्याख्यान अविरति का निरोध करता है। प्रत्याख्यान त्याग के संबंध में ली गई प्रतिज्ञा है। जब तक किसी वस्तु का प्रत्याख्यान नहीं किया जाता, तब तक उस वस्तु संबंधी के कर्म रज आते रहते हैं। जब कोई पापाचरण से दूर होने के लिए केवल उसे नहीं करना, इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसके नहीं करने के लिए आत्म निश्चय भी आवश्यक है। जैन धर्म की मान्यता के अनुसार पापाचरण नहीं करनेवाला व्यक्ति भी जब तक पापाचरण नहीं करने की प्रतिज्ञा नहीं लेता तब तक वह पापाचरण से मुक्त नहीं हो सकता। अत: प्रत्याख्यान पापाचरण से निवृत्त होने के लिए किया जानेवाला दृढ संकल्प है। उसके अभाव में नैतिक जीवन में प्रगति संभव नहीं है। छः आवश्यकों का क्रम वैज्ञानिक ढंक से निरुपित किया जाता है। 1. पहला समायिक आवश्यक जीवन में समभाव की साधना सिखाता है। 2. चतुर्विंशतिस्तव द्वारा वह तीर्थंकर भगवंतों जैसी वीतरागता अपने अंदर विकसित करने की भावना करता है। 3. वंदन के द्वारा वह स्वयं विनय गुण से विभूषित होता है। 4. प्रतिक्रमण के द्वारा समस्त बाह्य एवं वैभाविक परिणतियों से विरत होकर अन्तर्मुखी बनता है। 5. कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर की ममता कम की जाती है तथा आत्मभाव में रमण किया जाता है। और 6. प्रत्याख्यान में भविष्य के लिए विभिन्न प्रकार के त्याग ग्रहण किये जाते हैं। इस प्रकार साधक षडावश्यक से अपने आध्यात्म जीवन को जगाता हुआ मुक्ति की राह पर कदम बढ़ाता है। 60 Van E cation international For Paaral & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138