Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 103
________________ मति ज्ञान श्रत ज्ञान अवधि ज्ञान गबपर्याय केवल ज्ञान किन्नरों आदि से सच्चे भाव पूर्वक पूजित। लोगो :- लोक, सकल पदार्थों। देव नाग जत्थ:- जहां। गणेश से आR पइट्ठिओ :- प्रतिष्ठित है, चिं वर्णित है। जगमिणं:-यह जगत। तेलुक्कमच्चासुरं:- तीनों लोक के मनुष्य तथा असुरादिक तीन लोक के आधार रूप। धम्मोः - धर्म वड्ढओः- वृद्धि को प्राप्त हो। सासओ:- शाश्वत विजयओः- विजय से। धम्मुत्तरंः- धर्मोत्तर, चारित्रधर्म। वड्ढउः- वृद्धि को प्राप्त हो। सुअस्सभगवओ- श्रुतभगवान की(आराधना के निमित) करेमि काउसग्गं :- कायोत्सर्ग करता हूं। भावार्थ : अर्द्धपुष्कर द्वीप में, घातकी खंड में, और जम्बुद्वीप में (कुल मिलकर ढाईद्वीप में) आये हुए भरत, ऐरवत तथा महाविदेह क्षेत्रों में श्रुतधर्म की आदि करने वाले तीर्थकरों को मैं नमस्कार करता हूं।1 अज्ञान रूपी अंधकार के समूह का नाश करने वाले, देव समूह तथा राजाओं से पूजित, एवं मोह जाल को सर्वथा (बिल्कुल) तोड़ने वाले, मर्यादा को धारण करने वाले श्रुतधर्म को मैं वंदन करता हूं।2 जन्म, जरा-वृद्धावस्था, मृत्यु तथा शोक को नाश करने वाला, कल्याणकारक तथा अत्यंत विशाल सुख रूप जो मोक्ष है उसको देने वाला, देवेन्द्रों, असुरेन्द्रों एवं नरेन्द्रों के समूह से पूजित ऐसे श्रुतधर्म के सार रहस्य को पाकर कौन बुद्धिमान प्राणी धर्म की आराधना में प्रमाद करें? अर्थात् कोई भी प्रमाद न करे।3 हे ज्ञानवान भव्य जीवो! नय प्रमाण से सिद्ध ऐसे जैनदर्शन को मैं आदरपूर्वक नमस्कार करता हूं। जिनका बहुमान किन्नरों, नागकुमारों, सुवर्णकुमारों, और देवों तक ने भक्ति पूर्वक किया है, ऐसे संयम की वृद्धि जिनकथित सिद्धांत से ही होती है। सब प्रकार का ज्ञान भी जिनोक्त सिद्धान्त में ही निःसंदेह रीति से वर्तमान है। जगत के मनुष्य, असुर आदि सब प्राणीमात्र आदि सकल पदार्थ-जिनोक्त सिद्धान्त में ही युक्त प्रम पूर्वक वर्णित है। यह शाश्वत सिद्धान्त उन्नत होकर एकान्तवाद पर विजय प्राप्त करे और इसमें चारित्रधर्म की भी वृद्धि हो। पूज्य अथवा पवित्र ऐसे श्रुतधर्म के वंदन आदि के निमित्त मैं काउस्सग्ग करता हूं। MR.MAMI.KAMKARANAAKASAMAKALU-198 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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