Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 78
________________ | सिद्धिगति को प्राप्त करके निरंजन रुपातीत, निराकार स्वरुप को प्राप्त करते हैं। और आदि अनंत काल पर्यन्त अक्षय सुखों में लीन हो जाते हैं। : 7. प्रमार्जना त्रिक 1. भूमि प्रमार्जन 2. हाथ पाव प्रमार्जन 3. मस्तक प्रमार्जन ! वैसे चैत्यवंदन प्रारंभ करने से पूर्व दुपट्टे के किनारों से भूमि को तीन बार पूंजना यही प्रमार्जन त्रिक है। प्र - उपयोग पूर्वक । मार्जना पूजना अर्थात् साफ करना। इस त्रिक के पालन हेतु दुपट्टे के किनारे सिले हुए नहीं होना चाहिए। जिससे लम्बे लटकते खुले धागों के कोमल समूहों से जयणा का पालन अच्छी तरह हो सकेगा। - 6. दिशात्याग त्रिक :- चैत्यवंदन प्रारंभ करने के पूर्व जिस दिशा में देवाधिदेव विराजमान है, उसके अतिरिक्त अन्य दिशाओं में देखने की क्रिया बंद करने | को दिशात्याग नामक त्रिक कहते हैं। तीनों दिशाओं में देखने का त्याग करके मात्र प्रभु की दिशा में प्रभु को ही देखने से चित्त की अस्थिरता समाप्त हो जाती है। अनुचित विचार भी नहीं आते जिसमें प्रभु भक्ति में एकाग्रता - तल्लीनता बढ़ती है। 8. आलंबन त्रिक 1. मन को सूत्रार्थ का आलंबन 2. वचन को सूत्रोच्चार का आलंबन 3. काया को जिनबिंब का आलंबन । चैत्यवंदनादि करते समय मन - वचन काया के तूफानी घोडे उन्मार्ग पर न चले जाएँ, इस हेतु तीन योगों के घोड़ों को तीन-तीन आलंबनों के स्तंभ के साथ बांध देना आलंबन त्रिक कहलाता है। Jain Education International - 9. मुद्रात्रिक: 1. योग मुद्रा 2. जिन मुद्रा 3. मुक्ताशक्ति मुद्रा मुद्रा अभिनय (Postures), आकार धारा जैन दर्शन में चैत्यवंदन प्रतिक्रमण आदि विधि में विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का विधान किया गया है। कारण मन और मुद्रा का प्रगाढ संबंध है। अप्रशस्त मुद्रा अप्रशस्त मन। प्रशस्तमुद्रा प्रशस्त मन । चैत्यवंदनादि विधि में जिनमुद्राओं के पालन करने की बात कही . गई है, जिसमें ऐसी शक्ति है, कि वे मन के अप्रशस्त भावों को दूर भगाकर प्रशस्त भावों को पैदा करती है। जैसे मन में अहंकार जगा हो तब किसी पूज्य की प्रतिकृति के सामने दो हाथ जोडकर, मस्तक झुकाकर खडे होने से अहंकार, पद्मासन मुद्रा में बैठने से वासना एवं कायोत्सर्ग मुद्रा में खडे रहने से क्रोध शांत हो जाते हैं। - 1. योग मुद्रा :- दो हाथ जोड, हाथ की कोहनी पेट पर रखें, जुडे हुए हाथों की उंगलियाँ एक दूसरे में क्रमशः, गुंथी हुई हो और हथेली का आकार अविकसित कमल की तरह हो यह मुद्रा योग मुद्रा कहलाती है। प्रभु की स्तुति इरियावहियं, चैत्यवंदन, णमुत्थुणं, स्तवन आदि सूत्र योगमुद्रा में बोले जाते हैं। 2. जिन मुद्रा :- जिनमुद्रा अर्थात् कायोत्सर्ग मुद्रा । सीधे खडे रहकर दोनों 73 = For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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